STORYMIRROR

Dr. Anu Somayajula

Abstract Others

4  

Dr. Anu Somayajula

Abstract Others

डर

डर

1 min
490

प्रिय डायरी,


डर

एक छोटा सा शब्द,

हमारे अस्तित्व का

एक अहम हिस्सा ही नहीं

हमारा जन्मजात सहचर है।

जिस पल हम

गर्भ का सुरक्षा कवच तोड़

बाहर निकलते हैं,

डर भी हमारे साथ पैदा होता है।

हमारा पहला क्रंदन

उसके अस्तित्व का ऐलान करता है।

हमारे हर बढ़ते कदम पर

हमें

डर का बोध कराया जाता है,

फिर तो आजीवन

डर आप ही-

हर कदम हमसे पहले उठाता है।


डर अनादि है,

ब्रह्मांड का सनातन सत्य है।

इससे त्रिदेव नहीं बचे,

देव और देवेंद्र नहीं बचे,

दानव क्या, मानव क्या-

चींटी से लेकर हाथी तक

इसके हाथों पराजित हुए हैं।

डर के वश-

आनन- फानन में उचित अनुचित

वरदान दिए गए,

संग्राम-महा संग्राम लड़े गए,

प्राणिमात्र भूतल से निःशेष हुए,

किंतु डर

अपनी जगह निशचल, अटल है।


डर

हमारे उत्थान के लिए

हमारी सुरक्षा के लिए

सुचारु रूप से जीवन यापन के लिए

अति आवश्यक तत्व है।

किंतु

“अति सर्वत्र वर्जयेत्”

यूं ही नहीं कहा गया।

एक सीमा के बाद

डर को अपने पर हावी न होने देना

हमारे विवेक और विचारशीलता

का सूचक है;

हमें अन्यान्य प्राणियों से

अलग करता है!


आज

एक अलग ही डर

अपना प्रभुत्व जमाए हुए है,

अपनों का डर,

अपनों से दूर होने डर,

एकाकी, निरुपाय, निस्सहाय

होने का डर-

या एकाकी मरने का डर?

इस सामूहिक डर से छुटकारा पाना

हमारी पहली प्राथमिकता है।


यह जो हमें

दीमक बन चाट रह है

हमारे चैतन्य को अपनी काली

चादर में लपेट हमें

तिल तिल मार रहा है

इससे हमें ही जूझना है।

इसके सम्मोहन को तोड़ दें,

डर को-

एक बार सत्य का सामना करने दें!

जिस क्षण जान जाएगा

‘हमसे उसका अस्तित्व है’

उससे हमारा नहीं,

स्वयं-

सौम्य, संयोजित हो जाएगा

“अंततः उसे हमारे साथ ही तो चलना है”


                


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract