दास्ताँ-ए-दोस्ती
दास्ताँ-ए-दोस्ती
एक सफ़र की शुरुआत ऐसी हुई
अंत तक एक कहानी सी बन गयी
तेरी मेरी बातें, कुछ यूँ कर गयी कि
दुनिया तो बटी रही, पर दोस्ती हमारी डटी रही
उसके हरे ने रोका, मेरे केसरिये ने टोका
तलवार-त्रिशूल की जंग का नज़ारा ही कुछ अलग था
न धर्म था, न मज़हब का निशान
नफ़रतों की जंग का आगाज़ ही कुछ अलग था
उसके अपने जिन्न से बन गए, मेरे कौन सा शैतान से कम थे
काफ़िर वो भी नहीं था, नास्तिक हम भी नहीं
पर दोस्ती के इम्तिहान में
कोई अल्लाह नहीं था, कोई भगवान नहीं
न उसे आखिर का डर था, न मुझे प्रलय का भय
हमसे गुनाह बस इतना सा हो गया
अपनों को अपना मान दोस्ती को आजमा लिया
वो मेरा श्लोक, मैं उसका कलमा पढ़ गया
देखते-देखते यह समां लहू मे बदल गया
नफरतों ने साँसे तो नहीं दी
पर साथ छीन, दोस्ती अमर कर दी
आखिर में उसका कब्र ही हुआ, मेरी राख ही बनी
खून भरी आँखें खून करते ही आँसुओं में तब्दील हो गयी
सफ़र में इम्तिहान बहुत थे
पर अंजाम दुनिया ने दे दिया
जो हमारा साथ नहीं कर पाया
नफ़रतों की आंधी ने कर दिया
आम सी दोस्ती को खास बना
दास्ताँ-ए-दोस्ती कर दिया।