चंचल मन
चंचल मन
मन रे तू काहे है इतना चंचल.. दुनिया की टेढ़ी मेढ़ी डगर अरे थोड़ा तो सम्भल। उफ़्फ़फ़ पर ये मन मेरा न संभलता। बहुत ज्यादा चंचल है, सुनता सबकी है मगर की सदा अपने मन की है इसने। कोई कुछ भी कहे भले ही भले के लिए ये सुनता ही नहीं। पर एक बात है इसको इसकी चंचलता से कभी नुकसान नहीं हुआ, बल्कि बहुत प्यार मिला है हमेशा।
एक बार की बात है मैं छोटी ही थी, अब ये मन इतना चंचल था कि टिकता नहीं एक बात पर, तो माँ ने आलू की सब्जी बनाई, अब मन जिद पर की मैं आलू खाऊँगी रस नहीं, तो पापा ने कहा इसे रस मत देना, तो माँ ने सब्जी मेरे लिए सुखी की।मैंने खुशी से आलू खाये। फिर कुछ दिन बाद फिर से यही सब्जी बनी तो सिर्फ रस खाना है, उफ़्फ़फ़ तो रस ही खा या। अब सूखे आलू को भी मेरे लिए गीला करना पड़ा। अब यही करते महीना बीत गया। माँ को गुस्सा आने लगा और मेरा मन मानता ही न ये करे बिना। तो पापा को एक युक्ति सूझी। अब इस बार मैंने ऐसा किया तो उन्होंने बोल दिया, अबसे आलू नहीं बनेंगे। क्योंकि मैं आलू ही खाती थी तो आ गई मेरी शामत, अब सारी सब्जी खानी पड़ेगी सोचकर ही माँ ने जो जैसा परोसा चुपकरके खा लिया, और बोली, आज के बाद नखरा नहीं करूँगी, जो बनेगा सब खाऊँगी मगर आलू भी बनाना। पापा ने हाँ कर दी, और सब ख़ूब हँसे। मगर मेरा बाल मन और चंचल था अपनी बात पर कैसे टिकता, नखरा बन्द हो गया मगर सब सब्जी उफ़्फ़फ़फ़फ़ मैं आज भी न खाती।