चल इस जहां को छोड़ चले
चल इस जहां को छोड़ चले
है क्यो मुंतज़िर बेगाने ज़हां के लिए,
इस चल इस जहां को छोड़ चले।
जिंदगी के डगमगाते रास्तों पर,
बेवजह लगी मजबूरियों को छोड़ चले।
किसको जवाब देना, किससे हिसाब लेना,
बंधे हैं जिससे ख्वाहिशों के परिंदे।
उन मजबूरियों जिम्मेदारियों को छोड़ चले,
चल इस जहां को छोड़ चले।
दूसरों से लिहाज, परायों से शर्म,
गैरों से उम्मीद, अपनों से आबो हया।
कब तक ओढ़ कर यह शराफत का नकाब चलें,
चल इस जहां को छोड़ चले।
किसने क्या सोचा है कौन क्या सोचेगा,
यह सब अपनी रुकावट है कोई गैर क्या रोकेगा।
क्यों ना इस बार अपने मन की चाल चले,
चल इस जहां को छोड़ चले।
उपजेगा कभी विषाद,
तो कभी हर्ष भी होगा,
कभी होगा प्रकाश,
तो कभी अंधकार से संघर्ष भी
होगा।
जब सब है पहले से तयशुदा,
तो क्यों जिंदगी में गम पाल चले,
चल इस जहां को छोड़ चले।
कुछ वक्त तक रहेंगे फिर साथ छोड़ जाएंगे,
यह बादल नाउम्मीदी के कब तक बिसात छोड़ पाएंगे,
अंधेरा भी फिर एक दिन छंट जाएगा,
तो क्यों ना लेकर मशाल चले।
टूटती है उम्मीद तो क्या हुआ मयस्सर,
फिर कोई नया मुकाम होगा,
गिरती है जिंदगी तो गिर भी जाए,
उठने पर भी उसका नाम होगा।
कोई ना कोई होगी उम्मीद तो पूरी,
तो फिर क्यों ना फिर एक नई आस पाल चले,
चल इस जहां को छोड़ चले।
कटेगा वक्त बहती नदी सा नाकामी की सोच दूर कर,
आशाओं की नई प्रभात अंधेरे के फैसले चूर कर।
लेकर जिंदगी में आगे अपने गिर कर उठने की मिसाल चले,
चल इस जहां को छोड़ चले।