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CA. Himanshu mehta

Abstract

3.5  

CA. Himanshu mehta

Abstract

बात जिंदा रहने भर सी है

बात जिंदा रहने भर सी है

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ख्वाहिश कोइं अब जिंदा नहीं 

जान भी अब मुख्तसर सी है


ख्वाब कोई अब वस्ल का नहीं 

आंख फिर भी पानी में तर सी है


दिल भी अब सीने में पहले सा नहीं 

शब ए गम नया नहीं,रात चीज अजीब डर सी है


कबा की तरह बदलू मिजाज, काबिल नहीं

 मुझे अब फरक नहीं पड़ता, ये भी उनके लिए शरर सी हैं


लगता है जानते है मुझे जो मिले, अभी हम खुले नहीं

बहरहाल जहां को लगता है कि बात घर सी है


मुझसे ही उलझे रहते है अरमान मेरे ,अमन मयस्सर नहीं

खैर कोई न्यी बात नहीं पुरानी अदावत जर सी है


सख्त दोपहर सी हो गई जिंदगी दूर अब नजर छाव नहीं

सितम की कोई इंतहा नहीं, बात जिंदा रहने भर सी है!


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