चिराग़ों के अंधेरे
चिराग़ों के अंधेरे
तीज त्योहारों पर
चांदी, पीतल, मिट्टी के दीए निकाले जाने
धोए, चमकाए जाते
राह देखते हम
जाने किस दीए से निकलेगा धुआं
नीला, सफ़ेद या हरा
उभरेगा एक अधूरा आकार
गोल मटोल, बड़ी बड़ी आंखों
और लहराती चोटी वाला
पूछेगा
'क्या हुक़्म है आका'
आदमी बावला हो रहा है
रास्ते में
पैरों की ठोकर खाते पत्थर भी
अलादीन का चिराग़ लगते हें
उड़ती हुई धूल
जादुई धुएं सी लगती है
आंखें फ़िर ढूंढती हैं जिन्न को
कान बेचैन हैं सुनने को
'क्या हुकम है आका'
एक अमूर्त चित्र तैरता है हवा में
'तुम्हारे लालच की कोई सीमा ही नहीं
तुम्हारी मांगें पूरी करते करते
चुक गया हूं मैं
अस्तित्वहीन हो रहा हूं
अब मुक्ति चाहता हूं
इच्छाओं के चिराग़ों से
चिराग़ों के अंधेरों से।'
