चिंतन
चिंतन
माँ बाबा की गुड़िया थी वो,
हाँ, उसे प्यार से पाला था,
पढ़ा लिखा कर खड़ा किया,
उनका अंदाज निराला था,
कहते थे बेटा है मेरा,
नाम करेगी एक दिन रोशन,
दो घरों का मान रहेगी,
बड़ा सादा था पालन पोषण।
हुई बराबर बाबा के तो,
कहती थी आराम करो,
गुड़िया बड़ी हो गई तुम्हारी,
अब ना कोई काम करो।
विधाता को था ना मंजूर,
रहे किसी के हृदय का नूर,
आई नज़र में दरिंदगों की,
हुई वहीं पर चकना चूर
ना भाग सकी ना बोल सकी,
बस दर्द की आहें चीख बनी,
नोंच नोंच कर मिटा दिया,
हैवानियत का ग्रास बनी।
थी पीड़ा हर सिसकी में,
उसने जाने कैसे वे दर्द सहे,
एक साथ सब उस पर झूमे,
वे जाने कैसे मर्द रहे।
बेटी संग माँ बाप का भी,
हुआ बलात्कार बार बार,
कभी थाना कभी अदालत,
कभी अस्पताल या बाज़ार।
तारीखों पर तारीखें थीं,
मरने का था उसे वरदान,
सुन्न हुए थे माँ बाप तब,
उनके भी थे कुछ अरमान।
मौत पर ना करो तमाशा,
अब न्याय मांगती है आवाम,
दो फाँसी चौराहे पर ही,
कभी ना हो बेटी बदनाम,
इस दर्द को जो मिटा सके,
क्या कोई किरदार यहाँ है?
एक बार में सजा जो लिख दे,
क्या न्याय का दरबार यहाँ है ?
