कोरा ख़त
कोरा ख़त
ये कोरा ख़त क्या करूंगी मैं लेकर,
कुछ लिख देते अधूरा सा नाम देकर,
या लिख देते उस पर अपना ही नाम,
या भेज देते कोई दिल का ही पैगाम
क्या इसमें तुम्हारे इश्क़ के अफसाने हैं,
या महकते प्रेम के बीत गए ज़माने है,
इसमें हसरत है खामोशी है इंतजार है,
कि खुशबू है इबादत है या एतबार है।
मैं क्या जानूँ क्या क्या है इस खत में,
कि तस्वीर मेरी उभरी है मोहब्बत में,
महसूस होती है कोई स्याही इश्क़ की,
लिफाफे से रोशनी तो आती है प्रेम की।
अब की बार कुछ तो लिख देना ऐसा,
कि तपती दुपहरी में हो भोर के जैसा,
इस वीरान से मन को हो तसल्ली जैसा,
पथरीली कंटीली राह में फूलों के जैसा।
लिख देना ख़त बिल्कुल तुम तुम्हारे जैसा,
और बाँच लूंगी मैं उसे सिर्फ हमारे जैसा।

