चांद की शाम और वो
चांद की शाम और वो
मैं तुम्हें ईद का चांद! बिल्कुल नहीं कहूंगी!
तुम तो हर रोज मेरी आंखों के सामने रहते हो।
बस बैठे बैठे तेरे इस चंचल मुखड़े को निहारा करती हूं,
तेरी चांदनी की परछाईं में खुद को देखा करती हूं।
यौवन यामिनी के बीच शीशे से चमकते हुए,
नीले अम्बर में! जब तुम ऐसे इतराते हो ,
पूर्ण होकर भी तुम अधूरे से हो जाते हो।
कुछ अंधेरा, कुछ उजाला, कभी बादलों में
जब तुम मुझसे लुका छिपी खेल खेलते हो
मैं सोच में डूब जाती हूं, कहीं फिर मैं खो ना दूं
कभी हम मिले तो क्या मिले हमारे बीच में
अब भी वही दूरी वही फासले,
ना मेरे कभी कदम बढ़े और ना तुम अम्बर से उतरे।
मेरे मन की ज्वाला कांपती है कंदीलों में,
तेरे हजार रूप देखती हूं उन सुंदर कोपलों में।
जब विदा लेते हो तुम, नभ के तारें आहें भरते हैं,
ओस रोया करती है, बूंद बनकर जो छितराती है।
जब तुम अस्ताचल में ओझल होते ,
मैं निंद्रा के आंचल में खो जाती।
घटते बढ़ते तुम प्रति पल गगन में
प्रेम मेरा समत्व भाव चाह मन में।
पाने की चाह नहीं अब मन में,
पर तुझे खो देने के डर में,
एक सपना संजोए आंखों में ,
अब भी सहमी सी बैठी हूं।

