चाल
चाल




कभी सोचा तुमने!
ढलती सांझ की
उंगली पकड़े
जब रात उदास होती है
ताारे टूटते हैं यकायक
और पुुुच्छल तारा
निकल आता है
ज्योत्सना अदृश्य होकर
मुंह छुुपा कर डूब जाती है
सागर में
और कर लेती है आत्महत्या!
कभी सोचा तुमने!
अश्रुओं को छुपाये
गरजते हैं जब मेघ
विद्युत कड़क कर
पूछते हैं
नमक का हिसाब
विवश होकर
हो जाते हैं तितर-बितर
रतजगे में
मौन धरती
अपने अहम को
सूखने की चर्चा करने लगती है!
कभी सोचा तुमने!
भोर होने से पूर्व
दोपहरी उतर जाय
बिना सूरज के
बिना सूचना के
चांद की निगरानी में
सागर में तैरने लगे पर्वतश्रृंखलायें
और घाटियों में
जमने लगती है बर्फ
और नदियां
बहने लगती है उल्टी
दिशा में
अछूती रह जाती है सकारात्मकता
नकारात्मकता की आड़ में!
परिदृश्य
एक परिवेश में
दृृृष्टिगत तो होती है
कभी सोची नहीं जाती
सोची समझी चाल
पृथ्वी की चाल
चंद्रमा की चाल
हमारी चाल
और आपकी चाल!