बून्दों की जादूगरी
बून्दों की जादूगरी
जेठ के सूरज से
धरती थी मुरझाई।
झेल के तपिश
आग का गोला थी बन आयी।
घुमड़-घुमड़ कर काले बादल
जब आसमान में छाये।
बरखा के आने का
शुभ संदेसा लाए।
प्यासी धरती का
खत्म हुआ था इंतज़ार
पड़ने को थी पहली फुहार।
बह चली थी शीतल बयार,
आने को आतुर थी बहार।
बारिश की बून्दें भी
कमाल की जादूगरी दिखाती हैं।
पड़ती हैं तन पर,
कब सिर्फ तन को भिगोती हैं ?
भीगता है तन, मगर
बून्दें तो रूह में बस जाती है।
पड़ती हैं बून्दें जब
सूखे दरख़्त पर
नई कोपलें आ जाती हैं।
जेठ की कुम्हलाई धरती पे
एक बार फिर,
हरियाली आ जाती है।