बुर्क़े वाली औरत
बुर्क़े वाली औरत
उसकी ख़ुशबू कुछ जानी पहचानी सी लगी
मगर पलट कर देखना बेमानी था,
वो किसी और का हाथ थामे हुए
इत्मिनान से गुज़र रही थी।
चेहरा तो नही देखा मगर
खूबसूरती उसकी खिलखिलाहट
से बयाँ हो रही थी।
दिल मेरा ऐसे तो न धड़का था कभी
फिर क्यूँ उसे और जानने की
इस दिल की ज़ुर्रत हो रही थी।
मेरे क़दम ना चाहकर भी उस ओर
बढ़ चले, जिस तरफ वो अज़नबी
बुर्क़े वाली औरत चल रही थी।
मैं चलता रहा और दुआ पढ़ता रहा
उसके एक दीदार पाने को ,
ना जाने उस पल क्या हुआ जो
वो ठहरी और फिर पलटी भी,
जैसे उसे भी किसी के होने का
एहसास हुआ।
वो अचानक उसकी नज़रे ठहर
गई थी मुझ पर , मैने क़दमो में
उसके लड़खड़ाहट महसूस की थी
और मैं उसकी बुर्क़े में दिख रही
आँखों मे छलक आए आँसुओ से
पल भर में ही उसको पहचान गया।
हाँ ये वही है जिसे शान से
अपनी दहलीज़ पर क़ुबूल है कह कर
ज़न्नत-ए-नूर बना कर लाया था।
मगर नशे में अपने गुरुर के
तलाक़ देकर ठुकराया था।
यूँ इस तरह सामना होगा उनसे
ये कभी जेहन में भी ना आया था।
वो बुर्क़े वाली औरत, वही चाँद है
जिसे वक़्त रहते अपना बना ना पाया था।
उसके लड़खड़ाते क़दमों को
बहुत प्यार से संभाला उसने
जिसका दामन थामे वो हँसी शाम
में समन्दर किनारें मुस्कुरा रही थी।
मेरे क़दम अब भी वही जम गए थे
मगर वो मेरी बुर्क़े वाली औरत
किसी और के साथ जा रही थी।
