बुनियाद घर की
बुनियाद घर की
अडिग खड़े थे हर मुश्किल में
है संघर्षों में भी जीना सिखाया
पिता होते हैं बुनियाद घर की
कन्धों पर जिन्होंने भार उठाया
आज मौजूद है सब कुछ
लेकिन मिलते कहीं आप नहीं
ये जीवन कि ये कैसी विडंबना
बीच सफर में उठा,पिता का साया
मुस्कुराहटें ना जाने
कहाँ खो गयीं
खामोश हो जुबान
मानो सुन्न हो गयी
दिल चीर कर
रख देती वो सुबह
जब बिन आहट
वो ज़लज़ला आया
पल भर में जब
बह गयी ख्वाहिशें
स्तब्ध थे,निशब्द थे कि...
शिकायत न कर सके
लेकिन खिन्न था मन
कि ये दिन क्यों दिखाया
ख़ामोशी,उदासी ये अधूरापन
बहुत कचोटता है दिल को
आपकी कुर्सी का खालीपन
दिलासा देने उमड़ तो पड़े लोग
क्यूंकि साथ छूटने का दर्द
कोई समझ न आया
पिता मेरी आस थे
मेरा स्तम्भ मेरा विश्वास थे
कहाँ ढूंडू कहाँ पूछूँ कि
उस जहाँ से कौन
फिर लौट के आया।