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Shashikant Das

Abstract Drama

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Shashikant Das

Abstract Drama

बंदिशे सोच की !

बंदिशे सोच की !

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था बचपन अपना भी 

मासूमियत से भरा, 

लेकिन लिपटा था बंदिशों के 

बेड़ियों का झरा।


सोचते थे कब होंगे 

हम थोड़े बड़े, 

होंगे अपने इच्छाओं के 

बांध पे भी पूरे खड़े।


जब जीवन के पड़ाव ने 

लिया एक कदम ऊपर, 

तब किताबो और परीक्षा के 

बंदिशों के बोझ थे हमारे सर पर।


सोचते थे कब 

व्यस्क जीवन की बेला आएगी, 

स्वछंद सोच धारा की 

लौ ज़िन्दगी में जलायेगी।


जब जीवन के पड़ाव ने 

लिया यौवन का मोड़, 

कार्यालय के बंदिशों ने 

मानो कर दिया सभी खुशियों को 

पीछे छोड़।


सोचते थे कब एक 

स्थ्याई जीवन का मंजर आयेगा, 

मनमौजी होके मस्ती भरे 

समंदर में गोते लगायेगा।


दोस्तों, न ही थमे ये सोच 

और न थमी ये बंदिशे, 

लेकिन हर पड़ाव पे छोटे खुशरंग पल के

संग पूरे किये हैं अपनी ख्वाहिशें।


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