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Bharti gupta

Tragedy

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Bharti gupta

Tragedy

बंद कमरों वाले आतंक

बंद कमरों वाले आतंक

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अब भी मुझको याद है

वह पहर जब

बादलों की काली चादर ओढ़ कर ,

चाँद भी सोया रहा था रात भर

और मैं भी, ओढ़ के चादर शर्म की

प्रातः होने की प्रतीक्षा कर रहा था


अब वो किस्सा

मैं कहूँ या ना कहूँ

सुनके धरती पूछती कैसे फटूं

झील जैसी फट पड़ी कैलाश में

था प्रलय का दृश्य माँ की आँख में

क्योंकि मेरे साथ वाले एक घर में

रात जल के मर गयी उसकी किरन ..


रात सन्नाटा बहुत था

सुबह कितनी भीड़ थी

प्रश्न चेहरों पर बहुत थे और

आंखों में नमी थी

इस तरह की मौत का

कारण बना था कौन सा

आश्चर्य ? सभ्यों की गली में

इस तरह का हादसा


भीड़ में थी सुगबुगाहट

नव वधू कायर नहीं थी

कब से, कैसे अपनी पीड़ा से

स्वयं वो लड़ रही थी

उसके घर की एक खिड़की

चीख़ों से ही कांपती थी

और सन्नाटों में कभी

सिसकियों सी सुबकती थी


चीखें घर में सिसकियाँ बनती रही

वेदना का स्वर कोई

उस रात को बाहर ना आया

और साहस नपुंसक बन

द्वार पर बैठा रहा

एक दस्तक मदद की बन

द्वार के भीतर ना आया


श्राप निर्धनता का और अभिशाप

अबला होने का

क्या? सही ये वक्त है

इन हादसों पर रोने का

थे सभी स्वजन वहां

गुरू, पिता सम भ्राता कई

क्यों मिल ही जाती, बीच सबके

द्रौपदी रोती हुई


बंद कमरों में हुए आतंक

और ये हादसे

क्यों किसी भी व्यक्ति के

व्यक्तिगत होकर रहें

और इन पुरुषार्थ हीन

जीवन की धाराओं से

मासूम सी इन बेटियों के

तन और मन पीड़ित रहें


हैं कलंकित हादसों से हम सभी

ये हमारी संस्कृति पर ग्रहण है

अब ना इनको व्यक्तिगत समझे कोई

ये हमारे लिये लज्जा का विषय है


भीड़ में जितने खड़े हैं

सबके चेहरे देख लो

इस हादसे का बोझ

अपनी आत्मा पर ले चलो

रह ना जाए कोई भी

इस घटना से अनजान हो

उड़ रही जो राख काली

सबके चेहरों पर मलो


और कायरता हमारी

लिबास ओढ़े सभ्यता का,

अफसोस में सिर झुकाए

अब ना चुप बैठी रहेगी।

निश्चित ही कि एक दिन,

आतंक के दरवाज़ों पर

क्रोध, पश्चाताप की,

अग्नि सी बन कर जलेगी ।












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