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Bharti gupta

Inspirational

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Bharti gupta

Inspirational

अपने-अपने शिव कंठ

अपने-अपने शिव कंठ

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अजीब सा मौसम है चारों तरफ भ्रम ही भ्रम है

आदमी के अंदर इतना अहंकार और दर्प

कि विष के रूप में रहने लगा है सर्प

यह अचानक जो समंदर काला हुआ है

यह आसमान भी धुआँ धुआँ है


यह वही विष तो नहीं

जो कभी शिव ने पिया था

सोच लिया था

जनमानस के अंतर में बनने वाला

यह नफरत का विष, अगर मैं ही पी लूँ

कंठ में उतार लूँ

तो इंसानी प्रवृत्ति दोष मुक्त हो जाएगी

युगों युगों तक यह धरा धन्य हो जाएगी


चलो समंदर का ही नहीं आसमा का भी

मंथन कर डालें

मन का नहीं आत्मा का भी मंथन कर डालें

जहां कहीं है एकत्रित कर ले इसे

एक और कलश में भर ले इसे

परंतु कौन पिएगा इस विष को

ढूंढ कर लाओ एक शिव कंठ को


तभी एक साहसी साधनहीन सा युवक बोला

लाओ मुझे दे दो यह कलश

मैं बनूंगा शिव, मैं ही धरूंगा इसे

परंतु मेरे पास हिमालय की ऊंचाई नहीं

इतनी कठोरता और सच्चाई नहीं

मैं व्यक्ति हूं भगवान नहीं

साधारण हूं महान नहीं

फिर भी समाज की भलाई के लिए

कुछ भी करने को तैयार हूं

यह विष पीकर मरने को तैयार हूं मैं

नहीं चाहता कि यह यूं ही फैला रहे हैं

और हर व्यक्ति यहां विषधर रहे


तभी उसके विश्वास ने उसका साथ

छोड़ दिया

उसके प्रयासों में उसके साहस को

झकझोर दिया

अकारण यह विष क्यों, तुम शिव तो नहीं

तो शिव होने की कल्पना ही क्यों

यह वही विष है जो, हर आदमी हर

रोज़ पीता है, फिर भी जीता है

कभी पाप का कभी पुण्य का

कभी सच का कभी झूठ का

कभी अपमान का कभी तिरस्कार का

कभी नफरत का कभी अहंकार का

यही सत्य है यही अनंत है

यही उसके जीवन का संघर्ष है


मात्र तुम्हारे पीने से यह कम नहीं होगा

यह बनेगा और भी बनेगा

अपने को कम मत आंको

अपने अंदर के शिव में झांको

रोको इसे अंदर बनने से

रोको इसे बाहर बहने से

यही तुम्हें शक्ति देगा

यही देगा तुम्हें शिव कंठ

अब किसी और को शिव मत बनाओ

अपने अपने हिस्से का सब पी जाओ


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