बहुत दिनों से सोचती
बहुत दिनों से सोचती
बहुत दिनों से सोचती हूँ
कुछ नया लिखूँ
कुछ खास लम्हे लिखूँ
कुछ कहने के लिए नया सा हो
कुछ लिखने के लिए नया हो
मखमली रोयेदार शब्दों के साथ
कुछ नये रंग भरकर पिरोया जाये
शायद, कुछ तो नमकीन सी बातें हैं
खट्टी-मीठी, इन्द्रधनुषी रंगों से सजे सपने हैं,
उन्हें ही लिखने की कोशिश है
शायद कलम भी मुस्कुरा उठती है
अक्सर तब भी तुम्हारी तस्वीर बुनती है,
सिलाई के फंदे गिनने ही भूल जाती हूँ,
स्वेटर बुनना भूल कर
एक नई ग़ज़ल में वो सारे फंदे पिरो जाती हूँ
अक्सर ही चन्द्रमा की रोशनी में
कुछ नये खवाब सजा कर लिख जाती हूँ
हां, अक्सर चुपके से आकर
कलम से कुछ नया
कुछ बुन जाती हूँ।

