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Chetan Gondaliya

Abstract

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Chetan Gondaliya

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बहुस्याम एकोहम्

बहुस्याम एकोहम्

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हूं अषाढ़में मैं ही आदृ नभ घनघोर

हूं गगन में टिमटिम तारक मैं चहुंओर 

होऊं सहज स्तब्ध तो हो चित्रवत दूनिया

दशों दिशाओं को बिखेरूं हवाओं में वो मैं।


हूं यहां-वहां सर्वत्र मैं ही व्याप्त चेतनारूप

और अबूझों के लिए मैं ही हूं पाषाणरूप।

तरल हूं लहर से, शीतल समीर से हूं

अडिग बनूं तो समझो नगराज मेरू हूं।


हृदय में उठती पक्षीवत इच्छाएं मैं हूं

हर वृक्ष मृग खग में प्राणपखेरूं हूं।

गए थे मिलके देवगण भेद भांपने जो वो

अगम अभेद शिव का ज्योति शिखर ऊंच हूं।


बहूरूप में विलासरत फिर भी एकोहम् हूं

मिल सकें गर तो संसार के नक्शे-कदम हूं

मैं बहुस्याम एकोहम् हूं, मैं शंकर शिवम् हूं।


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