भटक रही है
भटक रही है
मानवता ढलक रही है,
इंसानियत भटक रही है।
मासूमियत अटक रही है ,
दीनता को झटक रही है।
अलगाव हो चला है,
बदलाव हो चला है।
आज के जमाने में,
जुड़ाव खो चला है।
रहते थे जो ज़मीन से जुड़कर,
आज आकाश में ढूँढते है अपने को।
बदलती हवाओं में…..
इंसान पहचान खो चला है।
‘अक्स’ को पहचान मुसाफ़िर,
यहाँ सदा के लिए कौन ठहरा है?
आवाज़ सुन अंदर की…
क्यूँ बैठा बहरा है?
क्यूँ बैठा बहरा है?
