भर्तहरि चरित्र
भर्तहरि चरित्र
गुरु चरणन चित लाय के, हरि को धरि मन ध्यान ।
प्रेरणादायी सन्त का , करूं चरित्र बखान।।
परमार वंश में जन्मे थे , अरु उज्जयिनी राजधानी थी ।
विक्रमादित्य लघु भ्राता थे, सब भांति प्रजा सुख पाती थी।
भूपति भी धर्म परायण थे , जनता भी धर्म परायण थी ।
अन्याय अधर्म कहीं ना था,सब प्रजा नीति की पालक थी।
दुर्जनों और अन्यायी के , अपराध क्षम्य ना होते थे ।
नृप का दण्ड विधान कठिन , अपराधी थर-थर कंपते थे।
छोटा भाई विक्रम भी निज , भ्राता समान गुणशाली था ।अनुगमन सदा करता उनका,उनकी आज्ञा का पालक था।
दोनो में प्रेम परस्पर था , था त्याग एक दूजे के लिए ।
सर्वोपरि प्रजानुरञ्जन था , वसुधा पर दोनों के लिए ।
थे भर्तृहरि दोनों में ज्येष्ठ , इसलिए राज्य वो करते थे ।
विक्रमादित्य आमात्य प्रमुख,बन राज व्यवस्था लखते थे ।
जिस प्रकार एक सुपुत्र पा , कृतकृत्य पिता हो जाता है ।
उसी तरह गुणवान भ्रात से , भूपति उर हुलसाता है ।
राजकार्य विक्रम को सौप , वह सुखमय जीवन जीते थे ।
विविध ज्ञान के ज्ञाता नृप, हर को प्रति क्षण ही भजते थे ।
विधि की कुछ ऐसी रचना थी, या नृप को ज्ञान कराना था।
नृप बंधे दूसरे परिणय में , प्रभु को वैराग्य जगाना था।
पा करके यौवना नारी को , नृप बहु प्रकार सुख भोग करे।
पर रानी के कुटिल कृत्य , ना अधिक समय तक छुपे रहे ।
प्रेमाधिक्य की बजह से , नृप को सन्देह हुआ ही नही ।
विक्रम की आंखों से लेकिन , वो रहस्य छिप सका नही ।
था रहस्य यह की रानी , एक नीच दरोगा को चाहे ।
अनुपस्थिति में नृप की वह तो , फौरन ही उसको बुलवाए।
जब रहस्य के खुले पटल तो , घात हुआ विक्रम उर पर ।
भ्राता अनिष्ट की शंका से, सुख चैन सभी था गया बिसर ।
सोचे की कहे या कहे नही , इस असमंजस में फंसे रहे ।
फिर एक दिवस साहस करके , भ्राता से ऐसे बचन कहे ।
कहूं पूज्य भ्राता सुनिए , भाभी कुलटा इस समय हुई ।
होकर के वशीभूत उनके , है बुद्धि आपकी भ्रमित हुई ।
उनके इन कृत्यों के द्वारा , कुल पर कलंक लग जाएगा ।
हम सबका यश रूपी उपवन, इस तरह नाथ मिट जाएगा।
इसलिए जांच करके देखो , है विलम्ब कुछ हुआ नही ।
यदि है दोषी तो समझाकर , सत्पथ पर लाना गलत नही ।
जब जानी पिंगला भेद , विक्रम ने सारा खोल दिया ।
रच के कुचक्र उसने उसमें , विक्रम को ऐसा फंसा दिया ।
रानी ने तत्क्षण बुलवाकर , एक नगर सेठ को महलों में ।
बोली मैं जो कहूं करो , अन्यथा पिरा दूं कोल्हू में ।
कल प्रात सभा में जाकर के,एक स्वांग तुम्हें करना होगा।
मुंह मांगा धन तुम पाओगे , जीवन भी तेरा अमर होगा ।
तुम जाकर राजन से कहना, विक्रम का ठीक चरित्र नही ।
वह तकता पुत्र बधू मेरी , क्या ऐसा करना उचित कहीं ।
इस प्रकार से समझाकर , रानी ने उसको विदा किया ।
हुई सुसज्जित सभा भूप नें , उन्नत आसन ग्रहण किया ।
देखते -देखते ही तत्क्षण , चिल्लाता नगर सेठ आया ।
दो मुझे न्याय हे भूप श्रेष्ठ , विक्रम से हमने दुख पाया ।
हो शांत त्याग भय कहो सेठ,उसने क्या ऐसा पाप किया ।
जिससे तुम इतने दुखी हुए,बतला क्या ऐसा कृत्य किया ।
नृपवर एक पुत्रबधू मेरी , यौवन सम्पन्ना नारी है ।
विक्रम उस पर आशक्त हुए , दें न्याय आपकी बारी है ।
सुनते ही सेठ के बचन तुरत , भूपति चेहरा तमतमा उठा ।
आंखों में क्रोध अनल उमङा , भाई -भाई का प्यार उठा ।
बोले विक्रम रे कुल कलंक , तूने मर्याद मिटाई है ।
नजरों से हो जा दूर मेरी , इसमें ही तेरी भलाई है ।
विक्रम कहता ही रहा भ्राता , इसमें मेरा कुछ दोष नही ।
देखें कर आप जांच पहले , है कहीं तो यह षडयंन्त्र नहीं ।
बोले भूपति बचने को स्वयं , अब तुम हमको भरमाते हो ।
करके ऐसा नीच कृत्य , बक -बक करते न लजाते हो ।
अपनी बातों का जब नृप पर,होता कुछ देखा नही असर ।
भोगने हेतु तब दण्ड स्वयं ,विक्रम वन की चल पङे डगर ।
इस प्रकार कर त्रिया चरित , विक्रम निष्कासन करा दिया।
हो निर्भय उसने कर कुकृत्य,कुल के गौरव को नशा दिया।
भूपति के आते महलों में , वह ऐसा प्रेम दिखाती है ।
मानो निर्धन को मिली आज , अपनी वह खोई थाती है ।
दिखलावे का आमोद प्रेम , मन से चाहे यह कब जाए ।
जाते ही भूप के वह फौरन , अपने प्रेमी को बुलबाए ।
उसके संग करती काम क्रिया , यौवन मकरंद लुटाती थी ।
अपने इन कृत्यों के द्वारा , दोनो ही कुल को नशाती थी ।
उन्ही दिनों की बात दीन , ब्राम्हण नृप के पुर में आया ।
देवाराधन कर उसने , देवों से अमर फल को पाया ।
भार्या सम्मुख आकर के,उसने उस फल को दिखलाया ।
हो जाएंगे हम अमर सभी, खाकर के इसको बतलाया ।
सहते दुख भीषण प्राणनाथ ,अपना है जीवन बीत गया।
हो अमर और दुख सहते क्या , आएगी तुमको नही हया।
मेरी इच्छा है यह स्वामी , यह फल तुम नृप को दे आओ ।
पाकर उनसे कुछ द्रव्य शेष,जीवन को सुखमय करपाओ।
प्रजा हितैषी भूप अगर , फल खाके अमर हो जाएंगे ।
तो दीन दुखी पीङित स्वामी , जग में निर्भय हो जाएंगे ।
ग्रहणी के ऐसा कहने पर , ब्राम्हण ने सभा पयान किया ।
लाकर फल भूपति के सम्मुख ,उसका गुण धर्म बखान किया ।
बोला जो कर में फल मेरे , वो फल अमर कहाता है ।
आहार करे इसका जो कोई,वह अजर अमर हो जाता है ।
सोचा मैने यह फल खाना , मुझको थोड़ा भी उचित नहीं ।
खाकर इसको हों आप अमर, ऐसा ही मुझको लगा सही ।
नृप ने ब्राम्हण के कर से , फल को सहर्ष स्वीकार किया ।
ब्राम्हण को दुख के सागर से, धन की नौका से पार किया।
फिर उसी समय पर ईश्वर ने , कुछ ऐसी रचना कर डाली ।
जो भूप हलाहल पीता था , दी उसको अमृत की प्याली ।
फल पाकर के उनके मन में , कुछ ऐसे जाग्रत भाव हुए ।
सोचे पिंगला इसे खाए , या मै उलझन में उलझ गए ।
यदि मै इस फल को खाता हूं, तो अजर अमर हो जाऊंगा।
सुखसार पिंगला जो मेरी , उसको ना ऐसा पाऊँगा ।
इसलिए समझ में यह आए , पिंगला अगर इसको खाए ।
उपभोग रहूं करता उसका , वो स्थिर यौवन को पाए ।
ऐसा विचार कर ले फल को,भूपति रनिवास पयान किया।
हर भक्त जगाने को प्रभु ने ,कुछ ऐसा यहां विधान किया ।
आगमन जानकर के पति का, पिंगला द्वार तक आई थी ।
ग्रीवा में भुजाओं का अहि सम, वो हार डालकर लाई थी ।
सुन्दर आसन पर लाकर के , नृप को उसने था बैठाया ।
था भरा ह्रदय में हलाहल , अधरों से अमृत बरसाया ।
भूपति बोले हे प्राणप्रिये , मैने ये अमर फल पाया है ।
खाकर इसको सुख पूर्ति करो , ऐसा मेरे मन भाया है ।
पहले तो बोली हे स्वामी , मेरा सर्वस्व आप ही हैं ।
इसलिए आप हों अजर अमर , मेरा सौभाग्य इसी में है ।
फिर बोली आप अगर चाहें, स्वामी का बचन निभाऊंगी ।
स्नान आदि से हो निवृत्त , लाओ मै इसको खाऊंगी ।
जाते ही पति के कामातुर, पिंगला यार को बुलवाया ।
दृढ बाहु पाश मे भरकर के, उस पर अधरामृत बरसाया ।
कर हास किया संसर्ग और अपना यौवन बलिहार किया ।
फिर लाकर फल को कुलटा ने,तत्क्षण ही उसे प्रदान किया ।
बोली प्यारे जो देख रहे हो , वह फल अमर कहाता है ।
तुम जरा मरण से मुक्त रहो , मुझे तेरा संग सुहाता है ।
कहा यार काम क्रिया , मुझ पर अशुद्धता छाई है ।
ऐसे में मुझको फल खाते, कुछ दिखती नही भलाई है ।
लेकर वह फल को महलों से , आंधी की नाई दौङा था ।
रानी को मूर्ख बनाकर के, मन ही मन खुशी निगोङा था ।
मेरे खाने से लाभ ही क्या , प्यारी वेश्या को खिलाऊंगा ।
वह नव युवती ही बनी रहे , आनन्द सदा मै पाऊंगा ।
ऐसा विचार कर नीच तुरत , वेश्यालय में दौङा आया ।
आया ग्राहक लख वेश्या ने , उसको आसन पर बैठाया ।
कहा नीच सुन प्राणप्रिये , एक वस्तु अलौकिक पाई है ।
आहार करे इसका जो कोई , होता यौवन स्थायी है ।
खा इसे रहो लावण्य मयी , तो जीवन मेरा सुखद होगा ।
दोनो की होगी कामपूर्ति , दोनो को अलौकिक सुख होगा।
कहने पर वेश्या ने उससे , उस फल को स्वीकार किया ।
होकर के शुद्ध ही खाने का ,उसने भी उसको बचन दिया ।
जब गया यार बैठी सुख से , मन में इस तरह विचारा है ।
आलिंगन पर नर का करते , बीता यौवन ही सारा है ।
इस तरह अमर फल खाकर के,मुझको न अमर अब होना है।
जीवन भर किया जो नीच कर्म, अब उस कलंक को धोना है।
दीन दुखी पीङित के रक्षक , शक्र समान महीपति हैं ।
कर अमर उन्हें दुर्गति से बचू , कहती ऐसी मेरी मति है ।
फिर वेश्या ने फल लेकर के , सभा हेतु प्रस्थान किया ।
नृप के सम्मुख आकर के , उसने साष्टांग प्रणाम किया ।
कहा भूप किसलिए कहो तुम, किस आशय से आई हो ।
संकोच त्याग कर कहो मुझे ,तुमको जो भी कठिनाई हो ।
कहा आपके शासन में , कोई दुख दैन्य ग्रसित ना है ।
मैने कुछ ऐसा पाया है , उसका भोगी ना कोई है ।
फल लेकर के नृप के सम्मुख,उसने कहने को मुंह खोला ।
नृप चकित हुए फल देख और , वेश्या से कुछ यों बोला ।
कहिए यह कैसे पास तेरे ,आया सच सच बतला मुझको ।
फिर तू क्यों इसे यहां लाई , क्या अमर नहीं होना तुझको ।
बोली एक आशिक है मेरा , मैने उससे यह पाया है।
हो प्रजा हितैषी भूप अमर , ऐसा मेरे मन आया है ।
इसलिए इसे सेवा में ले , मै पास आपके आई हूं ।
खा इसे मुझे करिए कृतार्थ , जो तुच्छ भेट मै लाई हूं ।
नृप उस फल को लेकर ,फौरन उसका आहार किया ।
कर मोह निशा का नाश ह्रदय में, हर ने दिव्य प्रकाश किया ।
नृप ने सोचा जिसको मैनें , अपना सर्वस ही माना था ।
वह मरती है उस नीच हेतु , ऐसा मैनें ना जाना था ।
वह भी है इतना गिरा हुआ , उसको भी नही चाहता है ।
वह भी वेश्या को ही अपना, जीवन धन प्राण मानता है ।
सबमें उत्तम यह वेश्या है , जो मुझे अमर करना चाहे ।
है कुटिल काम की गति ऐसी,क्या से क्या पल में हो जाए।
धिक्कार रानि धिक्कार यार , धिक्कार तुम्हें है हे वेश्या ।
धिक्कार तुम्हें हे कामदेव , तू भूल गया शंकर को क्या ।
ऐसा कहकर के भूपति ने , सब राजपाट को त्याग दिया ।
अपने अभिन्न भ्राता विक्रम को, मन ही मन था याद किया ।
फिर कहा मंत्रिवर सुनो तुम्हें , विक्रम का पता लगाना है ।
यह राजपाट सब सौंप उन्हें , मुझको निर्भय पद पाना है ।
ऐसा सुयोग मिलता उनको, जिन पर करुणाकर कृपा करें ।
नहि तुच्छ बस्तु भी छुट पाती, को राज पाट का त्याग करे।
पुर से बाहर आकर नृप ने , पुर रज मस्तक पर धारी है ।
फिर आए गुरु गोरख समक्ष जहं, भक्ति ज्ञान सुख भारी है ।
शत शत प्रणाम हे पूज्य संत , दोषों को मेरे क्षमा करना ।
अनुरक्त तुम्हारा रहूं सदा वस , वरद हस्त शिर पर रखना ।।