Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

Nand Kumar

Classics

4  

Nand Kumar

Classics

भर्तहरि चरित्र

भर्तहरि चरित्र

7 mins
367



गुरु चरणन चित लाय के, हरि को धरि मन ध्यान ।

प्रेरणादायी सन्त का , करूं चरित्र बखान।।

परमार वंश में जन्मे थे , अरु उज्जयिनी राजधानी थी ।

विक्रमादित्य लघु भ्राता थे, सब भांति प्रजा सुख पाती थी।

भूपति भी धर्म परायण थे , जनता भी धर्म परायण थी ।

अन्याय अधर्म कहीं ना था,सब प्रजा नीति की पालक थी।

दुर्जनों और अन्यायी के , अपराध क्षम्य ना होते थे ।

नृप का दण्ड विधान कठिन , अपराधी थर-थर कंपते थे।

छोटा भाई विक्रम भी निज , भ्राता समान गुणशाली था ।अनुगमन सदा करता उनका,उनकी आज्ञा का पालक था।

दोनो में प्रेम परस्पर था , था त्याग एक दूजे के लिए ।

सर्वोपरि प्रजानुरञ्जन था , वसुधा पर दोनों के लिए ।

थे भर्तृहरि दोनों में ज्येष्ठ , इसलिए राज्य वो करते थे ।

विक्रमादित्य आमात्य प्रमुख,बन राज व्यवस्था लखते थे ।

जिस प्रकार एक सुपुत्र पा , कृतकृत्य पिता हो जाता है ।

उसी तरह गुणवान भ्रात से , भूपति उर हुलसाता है ।

राजकार्य विक्रम को सौप , वह सुखमय जीवन जीते थे ।

विविध ज्ञान के ज्ञाता नृप, हर को प्रति क्षण ही भजते थे ।

विधि की कुछ ऐसी रचना थी, या नृप को ज्ञान कराना था।

नृप बंधे दूसरे परिणय में , प्रभु को वैराग्य जगाना था।

पा करके यौवना नारी को , नृप बहु प्रकार सुख भोग करे।

पर रानी के कुटिल कृत्य , ना अधिक समय तक छुपे रहे ।

प्रेमाधिक्य की बजह से , नृप को सन्देह हुआ ही नही ।

विक्रम की आंखों से लेकिन , वो रहस्य छिप सका नही ।

था रहस्य यह की रानी , एक नीच दरोगा को चाहे ।

अनुपस्थिति में नृप की वह तो , फौरन ही उसको बुलवाए।

जब रहस्य के खुले पटल तो , घात हुआ विक्रम उर पर ।

भ्राता अनिष्ट की शंका से, सुख चैन सभी था गया बिसर ।

सोचे की कहे या कहे नही , इस असमंजस में फंसे रहे ।

फिर एक दिवस साहस करके , भ्राता से ऐसे बचन कहे ।

कहूं पूज्य भ्राता सुनिए , भाभी कुलटा इस समय हुई ।

होकर के वशीभूत उनके , है बुद्धि आपकी भ्रमित हुई ।

उनके इन कृत्यों के द्वारा , कुल पर कलंक लग जाएगा ।

हम सबका यश रूपी उपवन, इस तरह नाथ मिट जाएगा।

इसलिए जांच करके देखो , है विलम्ब कुछ हुआ नही ।

यदि है दोषी तो समझाकर , सत्पथ पर लाना गलत नही ।

जब जानी पिंगला भेद , विक्रम ने सारा खोल दिया ।

रच के कुचक्र उसने उसमें , विक्रम को ऐसा फंसा दिया ।

रानी ने तत्क्षण बुलवाकर , एक नगर सेठ को महलों में ।

बोली मैं जो कहूं करो , अन्यथा पिरा दूं कोल्हू में ।

कल प्रात सभा में जाकर के,एक स्वांग तुम्हें करना होगा। 

मुंह मांगा धन तुम पाओगे , जीवन भी तेरा अमर होगा ।

तुम जाकर राजन से कहना, विक्रम का ठीक चरित्र नही ।

वह तकता पुत्र बधू मेरी , क्या ऐसा करना उचित कहीं ।

इस प्रकार से समझाकर , रानी ने उसको विदा किया ।

हुई सुसज्जित सभा भूप नें , उन्नत आसन ग्रहण किया ।

देखते -देखते ही तत्क्षण , चिल्लाता नगर सेठ आया ।

दो मुझे न्याय हे भूप श्रेष्ठ , विक्रम से हमने दुख पाया ।

हो शांत त्याग भय कहो सेठ,उसने क्या ऐसा पाप किया ।

जिससे तुम इतने दुखी हुए,बतला क्या ऐसा कृत्य किया ।

नृपवर एक पुत्रबधू मेरी , यौवन सम्पन्ना नारी है ।

विक्रम उस पर आशक्त हुए , दें न्याय आपकी बारी है ।

सुनते ही सेठ के बचन तुरत , भूपति चेहरा तमतमा उठा ।

आंखों में क्रोध अनल उमङा , भाई -भाई का प्यार उठा ।

बोले विक्रम रे कुल कलंक , तूने मर्याद मिटाई है ।

नजरों से हो जा दूर मेरी , इसमें ही तेरी भलाई है ।

विक्रम कहता ही रहा भ्राता , इसमें मेरा कुछ दोष नही ।

देखें कर आप जांच पहले , है कहीं तो यह षडयंन्त्र नहीं ।

बोले भूपति बचने को स्वयं , अब तुम हमको भरमाते हो ।

करके ऐसा नीच कृत्य , बक -बक करते न लजाते हो ।

अपनी बातों का जब नृप पर,होता कुछ देखा नही असर ।

भोगने हेतु तब दण्ड स्वयं ,विक्रम वन की चल पङे डगर ।

इस प्रकार कर त्रिया चरित , विक्रम निष्कासन करा दिया।

हो निर्भय उसने कर कुकृत्य,कुल के गौरव को नशा दिया।

भूपति के आते महलों में , वह ऐसा प्रेम दिखाती है ।

मानो निर्धन को मिली आज , अपनी वह खोई थाती है ।

दिखलावे का आमोद प्रेम , मन से चाहे यह कब जाए ।

जाते ही भूप के वह फौरन , अपने प्रेमी को बुलबाए ।

उसके संग करती काम क्रिया , यौवन मकरंद लुटाती थी ।

अपने इन कृत्यों के द्वारा , दोनो ही कुल को नशाती थी ।

उन्ही दिनों की बात दीन , ब्राम्हण नृप के पुर में आया ।

देवाराधन कर उसने , देवों से अमर फल को पाया ।

भार्या सम्मुख आकर के,उसने उस फल को दिखलाया ।


हो जाएंगे हम अमर सभी, खाकर के इसको बतलाया ।

सहते दुख भीषण प्राणनाथ ,अपना है जीवन बीत गया।

हो अमर और दुख सहते क्या , आएगी तुमको नही हया।

मेरी इच्छा है यह स्वामी , यह फल तुम नृप को दे आओ ।

पाकर उनसे कुछ द्रव्य शेष,जीवन को सुखमय करपाओ।

प्रजा हितैषी भूप अगर , फल खाके अमर हो जाएंगे ।

तो दीन दुखी पीङित स्वामी , जग में निर्भय हो जाएंगे ।

ग्रहणी के ऐसा कहने पर , ब्राम्हण ने सभा पयान किया ।

लाकर फल भूपति के सम्मुख ,उसका गुण धर्म बखान किया ।

बोला जो कर में फल मेरे , वो फल अमर कहाता है ।

आहार करे इसका जो कोई,वह अजर अमर हो जाता है ।

सोचा मैने यह फल खाना , मुझको थोड़ा भी उचित नहीं ।

खाकर इसको हों आप अमर, ऐसा ही मुझको लगा सही ।

नृप ने ब्राम्हण के कर से , फल को सहर्ष स्वीकार किया ।

ब्राम्हण को दुख के सागर से, धन की नौका से पार किया।

फिर उसी समय पर ईश्वर ने , कुछ ऐसी रचना कर डाली ।

जो भूप हलाहल पीता था , दी उसको अमृत की प्याली ।

फल पाकर के उनके मन में , कुछ ऐसे जाग्रत भाव हुए ।

सोचे पिंगला इसे खाए , या मै उलझन में उलझ गए ।

यदि मै इस फल को खाता हूं, तो अजर अमर हो जाऊंगा।

सुखसार पिंगला जो मेरी , उसको ना ऐसा पाऊँगा ।

इसलिए समझ में यह आए , पिंगला अगर इसको खाए ।

उपभोग रहूं करता उसका , वो स्थिर यौवन को पाए ।

ऐसा विचार कर ले फल को,भूपति रनिवास पयान किया।

हर भक्त जगाने को प्रभु ने ,कुछ ऐसा यहां विधान किया ।

आगमन जानकर के पति का, पिंगला द्वार तक आई थी ।

ग्रीवा में भुजाओं का अहि सम, वो हार डालकर लाई थी ।

सुन्दर आसन पर लाकर के , नृप को उसने था बैठाया ।

था भरा ह्रदय में हलाहल , अधरों से अमृत बरसाया ।

भूपति बोले हे प्राणप्रिये , मैने ये अमर फल पाया है ।

खाकर इसको सुख पूर्ति करो , ऐसा मेरे मन भाया है ।

पहले तो बोली हे स्वामी , मेरा सर्वस्व आप ही हैं ।

इसलिए आप हों अजर अमर , मेरा सौभाग्य इसी में है ।

फिर बोली आप अगर चाहें, स्वामी का बचन निभाऊंगी ।

स्नान आदि से हो निवृत्त , लाओ मै इसको खाऊंगी ।

जाते ही पति के कामातुर, पिंगला यार को बुलवाया ।

दृढ बाहु पाश मे भरकर के, उस पर अधरामृत बरसाया ।

कर हास किया संसर्ग और अपना यौवन बलिहार किया ।

फिर लाकर फल को कुलटा ने,तत्क्षण ही उसे प्रदान किया ।

बोली प्यारे जो देख रहे हो , वह फल अमर कहाता है ।

तुम जरा मरण से मुक्त रहो , मुझे तेरा संग सुहाता है ।

कहा यार काम क्रिया , मुझ पर अशुद्धता छाई है ।

ऐसे में मुझको फल खाते, कुछ दिखती नही भलाई है ।

लेकर वह फल को महलों से , आंधी की नाई दौङा था ।

रानी को मूर्ख बनाकर के, मन ही मन खुशी निगोङा था ।

मेरे खाने से लाभ ही क्या , प्यारी वेश्या को खिलाऊंगा ।

वह नव युवती ही बनी रहे , आनन्द सदा मै पाऊंगा ।

ऐसा विचार कर नीच तुरत , वेश्यालय में दौङा आया ।

आया ग्राहक लख वेश्या ने , उसको आसन पर बैठाया ।

कहा नीच सुन प्राणप्रिये , एक वस्तु अलौकिक पाई है ।

आहार करे इसका जो कोई , होता यौवन स्थायी है ।

खा इसे रहो लावण्य मयी , तो जीवन मेरा सुखद होगा ।

दोनो की होगी कामपूर्ति , दोनो को अलौकिक सुख होगा।

कहने पर वेश्या ने उससे , उस फल को स्वीकार किया ।

होकर के शुद्ध ही खाने का ,उसने भी उसको बचन दिया ।

जब गया यार बैठी सुख से , मन में इस तरह विचारा है ।

आलिंगन पर नर का करते , बीता यौवन ही सारा है ।

इस तरह अमर फल खाकर के,मुझको न अमर अब होना है।

जीवन भर किया जो नीच कर्म, अब उस कलंक को धोना है।

दीन दुखी पीङित के रक्षक , शक्र समान महीपति हैं ।

कर अमर उन्हें दुर्गति से बचू , कहती ऐसी मेरी मति है ।

फिर वेश्या ने फल लेकर के , सभा हेतु प्रस्थान किया ।

नृप के सम्मुख आकर के , उसने साष्टांग प्रणाम किया ।

कहा भूप किसलिए कहो तुम, किस आशय से आई हो ।

संकोच त्याग कर कहो मुझे ,तुमको जो भी कठिनाई हो ।

कहा आपके शासन में , कोई दुख दैन्य ग्रसित ना है ।

मैने कुछ ऐसा पाया है , उसका भोगी ना कोई है ।

फल लेकर के नृप के सम्मुख,उसने कहने को मुंह खोला ।

नृप चकित हुए फल देख और , वेश्या से कुछ यों बोला ।

कहिए यह कैसे पास तेरे ,आया सच सच बतला मुझको ।

फिर तू क्यों इसे यहां लाई , क्या अमर नहीं होना तुझको ।

बोली एक आशिक है मेरा , मैने उससे यह पाया है।

हो प्रजा हितैषी भूप अमर , ऐसा मेरे मन आया है ।

इसलिए इसे सेवा में ले , मै पास आपके आई हूं ।

खा इसे मुझे करिए कृतार्थ , जो तुच्छ भेट मै लाई हूं ।

नृप उस फल को लेकर ,फौरन उसका आहार किया ।


कर मोह निशा का नाश ह्रदय में, हर ने दिव्य प्रकाश किया ।

नृप ने सोचा जिसको मैनें , अपना सर्वस ही माना था ।

वह मरती है उस नीच हेतु , ऐसा मैनें ना जाना था ।

वह भी है इतना गिरा हुआ , उसको भी नही चाहता है ।

वह भी वेश्या को ही अपना, जीवन धन प्राण मानता है ।

सबमें उत्तम यह वेश्या है , जो मुझे अमर करना चाहे ।

है कुटिल काम की गति ऐसी,क्या से क्या पल में हो जाए।

धिक्कार रानि धिक्कार यार , धिक्कार तुम्हें है हे वेश्या ।

धिक्कार तुम्हें हे कामदेव , तू भूल गया शंकर को क्या ।

ऐसा कहकर के भूपति ने , सब राजपाट को त्याग दिया ।

अपने अभिन्न भ्राता विक्रम को, मन ही मन था याद किया ।

फिर कहा मंत्रिवर सुनो तुम्हें , विक्रम का पता लगाना है । 

यह राजपाट सब सौंप उन्हें , मुझको निर्भय पद पाना है ।

ऐसा सुयोग मिलता उनको, जिन पर करुणाकर कृपा करें ।

नहि तुच्छ बस्तु भी छुट पाती, को राज पाट का त्याग करे।

पुर से बाहर आकर नृप ने , पुर रज मस्तक पर धारी है ।

फिर आए गुरु गोरख समक्ष जहं, भक्ति ज्ञान सुख भारी है ।


शत शत प्रणाम हे पूज्य संत , दोषों को मेरे क्षमा करना ।

अनुरक्त तुम्हारा रहूं सदा वस , वरद हस्त शिर पर रखना ।।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Classics