भावुकता और सामाजिकता
भावुकता और सामाजिकता
भावों से ज्यादा आज कहीं , बन्धु सामाजिकता का है मोल,
प्यार-भाव बहुमूल्य जगत में,पर जन जीवन है अति अमोल।
भौतिक सुखों की खातिर, निज समाज विमुख हो पाते हैं,
सुख साधन के लालच में फंस, तज मातृभूमि भी जाते हैं।
मिलता जब तक सुख हमें वहां,हम सब कुछ भूले रहते हैं,
करके हमें याद पिता-माता,प्यार-अभाव बहुत दुख सहते हैं।
पर-भूमि पर आती विपदा, तब यादों के पट देती है खोल,
भावों से ज्यादा आज कहीं,बन्धु सामाजिकता का है मोल।
था किया पलायन उस भूमि से, बचपन जहां तूने गुजारा था,
अगणित कष्ट सहे जनक-जननी ने,तव जीवन उन्होंने संवारा था।
ममता तो सदा अतृप्त रही,मिथ्या भावों का उनको सहारा मिला,
सतुष्ट रहे तेरे वादों से , कभी किया न उन्होंने ने कोई भी मिला।
कोरोनासुर से होकर भयाक्रांत,स्मृत क्यों आई निज भूमि बोल?
भावों स ज्यादा आज कहीं, बन्धु सामाजिकता का है मोल।
सब ठहरें वहीं जहां हैं अभी, इसमें ही हम सबकी भलाई है,
न टालो अपनी दूजे पर, यह विपदा परीक्षा की घड़ी लाई है।
संभाव्य प्रबल संक्रमण तुम्हें,वाहक इसके तुम बन जाओगे,
तुम विपदा में फंसाकर के सबको ,खुद विपदा में तुम आओगे।
कुछ कष्ट सहो पलायन न करो,विवेकी तुम बनो ज्ञान चक्षु खोल,
भावों से ज्यादा आज कहीं,बन्धु सामाजिकता का है मोल।
