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Nand Kumar

Inspirational

4  

Nand Kumar

Inspirational

भारत के वीर सुभाष चंद्र बोस

भारत के वीर सुभाष चंद्र बोस

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श्री गुरुवे नमः


जब दमनचक्र अरु शोषण से,

गोरों के भारत व्याकुल था।

बस बहुत हुआ अब बहुत हुआ, 

जनगण तांडव को आकुल था।।


जो अधिकारों की माँग करे,

उनका विनाश वो करते थे।

चहुदिशि था हाहाकार मचा, 

जन दमन नीति में पिसते थे।।


बंगाल प्रान्त में कटक निकट, 

था कोडेलिया ग्राम सुन्दर।

अठारह सौ सत्तानवे के तेइसवे,

दिन मानो रवि आया भूमी पर।।


जानकी नाथ थे जनक और,

जननी थी उनकी प्रभावती।

दोनों के कुल का वह दीपक, 

विद्वान गुणी था धीर व्रती।।


पाँचवें वर्ष में शिक्षा हित , 

जब विद्यालय में आया था।

गोरे गुरुओं का भेदभाव , 

लख उनका शिर चकराया था।।


यह ही वह पहला अवसर था,

जिसने उर में हुंकार भरी।

हम नहीं हीन इन गोरों से , 

फिर भी क्यो जनता डरी डरी।।


शोषण पीड़ा अपमान घृणा का, 

चारों तरफ बोल बाला।

मुँह छिपा चले राहों पर छिप, 

जिनका होता था रंग काला।।


निज जन की ऐसी पीड़ा लख, 

मन धीर नहीं धर पाता था।

इस चिन्ता में बालक सुभाष को,

रास नहीं कुछ आता था।।


सात वर्ष के बाद उन्नीस सौ नौ,

रोविन्सन कालेज आए।

वातावरण देख कालेज का 

मन ही मन वह हर्षाए।।


वेणीमाधव थे मुख्य गुरु,

जो राष्ट्र भक्ति से भरे हुए।

उनका दर्शन सानिध्य पाय,

बालक सुभाष कृतकृत्य हुए।।


परहित में जीने की शिक्षा,

बचपन में जो मां से पाई।

उसका विस्तार किया गुरु ने,

दोनों ने मानो निधि पाई।।


शोषित पीड़ित अरु दुखियों का, 

था कष्ट नहीं देखा जाता।

इनको लखकर के वह बालक,

कुछ किए बिना ना रह पाता।।


जिस दिन उसके इस कार्य में,

कोई बाधा थी आ जाती।

उसके अदम्य साहस द्वारा,

बाधा समूल मिट जाती थी।।


उन्हीं दिनों की बात निकट के , 

गांव में हैजा फैल गया।

पा खबर नहीं निज घर जाकर,

पहले पीड़ित के पास गया।।


क्या उच्च निम्न क्या धनी दीन, 

वो मानवता के पोषक थे।

मानवता से था प्रेम उन्हें वह,

राग द्वेष से ऊपर थे।।


ग्यारह अगस्त उन्नीस सौ नौ में, 

खुदीराम फाँसी पाई।

एक वर्ष वाद उनको श्रद्धांजलि,

देने को सभा थी बुलवाई।।


उस दिन रखकर उपवास हरेक,

बालक ने मन में यह ठानी।

अब अधिक समय तक गोरों की,

होगी न यहाँ पर मन मानी।।


इस घृणा द्वेष की आँधी से,

बालक मन व्याकुल होता था।

इस व्याकुलता के निवारण को,

वह सद्गुरु खोजा करता था।।


विवेकानन्द टैगोर घोष अरु,

सुरेन्द्र नाथ से बात कही।

मन दुविधा में है भरमाया,

बतलाओ मुझको मार्ग सही।।


मिलकर सबसे वह कुछ दिन में, 

फिर इस निश्चय पर आ पहुँचे।

संग्राम किए बिन जीवन में,

कोई वीर न मंजिल पर पहुँचे।।


मानसिक शांति ना होने से,

कम अंक एफ0ए0मे आए थे।

इस कारण अपने मन ही मन,

परिणाम से वो पछताये थे।।


किसी कार्य को करने में, 

संकल्प सुदृढ़ जितना होगा।

उतना ही होगा कार्य सफल,

उतना ही मन को सुख होगा।।


ऐसा विचार कर सत्रह में, 

स्काटिश चर्च प्रवेश लिया।

 शिक्षा सह सैन्य प्रशिक्षण का,

था वही पे रह अभ्यास किया।।


पुस्तक आलय में जा एक दिन,

कुछ पठन सुभाष कर रहे थे।

पीछे से आया एक युवक,

भय से सब अंग काँप रहे थे।।


बोला चलकर देखो सुभाष,

ओटेन अपमान कर रहा है।

देशी छात्रों को पीट-पीट,

उनको भयक्रान्त कर रहा है।।


फिर क्या था लेकर के सबको,

हेडमास्टर ढिग सुभाष आए।

विस्तार सहित ओटेन के कृत्य,

उनको जाकर के बतलाए।।


कुछ सुना नहीं वह भी गोरा,

उसने सुभाष को डाट दिया।

ओटेन से माफी माँगो सब,

उसने ऐसा आदेश दिया ।।


इतना सुनकर के सुभाष की,

क्रोध अग्नि थी भड़क उठी।

हड़ताल हुई अधिकारों की ,

चहुदिशि थी व्यापक माँग उठी।।


तीन दिवस के बाद स्वयं,

ओटेन ने आ माफी माफी माँगी।

ऐसा निर्भीक वीरवर वह,

परहित मे था अनुपम त्यागी।।


ओटेन ने माफी मागी पर,

वह सुभाष से चिढ़ बैठा।

बदला लेने की फिराक में,

वह रहता ऐठा-ऐठा।।


कक्षा में एक दिन सुभाष,

आए थे चप्पल को पहने।

चलने की नहीं तमीज तुम्हें,

कहकर के लगा ताना देने।।


तुम भारतीय मूरख गुलाम ,

है देश असभ्यो का भारत।

उल्टी सीधी वश आती है,

करनी ही तो तुम को हरकत।।


झट सुभाष ने ऊपर उठ,

मुँह पर जो चाँटा मारा था।

मुख घूम गया शिर चकराया,

देखा दिन में ही तारा था।।


यह बात उसी क्षण कालेज में,

आँधी की गति से फैल गई ।

अपमान का बदला लेने की,

प्रचलित सुभाष की नीति नई।।


स्कूल प्रशासन ने तत्क्षण,

बुलवा सुभाष से प्रश्न किया।

क्या उसकी माफी माँगोगे,

आवेश में है जो कृत्य किया।।


बोले सुभाष जो पहले ही, 

करना था देर से किया गया।

माफी हरगिज ना माँगूंगा,

जो किया उचित ही किया गया।।


उनकी ऐसी बातें सुनकर,

कालेज ने उन्हें निकाला था।

घर आए सब ते कुपित हुए,

पर वो प्रसन्न मतवाला था।।


निज प्रभाव का कर प्रयोग फिर,

पिता प्रवेश कराया था।

उन्नीस सौ उन्नीस को वी0ए0 में,

स्थान प्रथम उन पाया था।।


कलकत्ता विश्वविद्यालय में ,

दूसरा स्थान रहा उनका।

मंजिल उनके चूमती कदम,

होता है अटल लक्ष्य जिनका।।


जानकी नाथ का था सपना,

वेटा आई0सी0एस0बन जाए।

पर राष्ट्र प्रेम का गला घोट,

ऐसा करना न उन्हें भाए।।


आई0सी0एस0की तैयारी को, 

इंग्लैण्ड गमन को कहा गया।

वो रोक सके ना हृदय भाव,

बिन कहे न उनसे रहा गया।।


आदेश आपका पूज्य पिता,

मैं शिरोधार्य हर करता हूँ।

मेरे मन की जो इच्छा है,

वो प्रकट आज मैं करता हूँ।।


 हर समृद्ध धनी जन का,

बेटा अधिकारी बन सकता।

पर मातृभूमि की सेवा को,

समृद्ध नहीं हर कर सकता।।


इसलिए आ रहा ये मन में,

सर्वस्व बार दूँ इस भू पर ।

काटूँ जननी के बन्धन सब,

रज धारूँ मैं निज मस्तक पर।।


जो कुछ सुभाष थे बोल रहे,

अनसुना पिता उसको करते।

बोले जाना ही है तुमको, 

तुम वचन भंग ना कर सकते।।


बेबस सुभाष ना चाह के भी,

पितु आज्ञा को स्वीकार किया।

पन्द्रह सितम्बर उन्नीस सौ उन्नीस,

में इग्लैण्ड को प्रस्थान किया।।


वहाँ पहुँचकर जब सुभाष,

जिस जगह प्रवेश को जाते थे।

होकर निराश मायूस लौट वो,

कुछ ही पल मे आते थे।।


ऐसा करते करते उनको,

जब कई दिवस थे बात गए।

नैतिक मानसिक विज्ञान पठन हित,

किट्स विलियम हाल प्रवेश भए।।


देखा सुभाष ने वहाँ सभी,

थे सुखी प्रसन्न स्वस्थ सुन्दर।

था नहीं किसी में द्वेष भाव,

थे स्वच्छ वस्त्र आहार रुचिर।।


सबका था सबसे प्रेम भाव,

कोई दीन हीन ना था दिखे।

भिक्षुक न दिखाई दे कोई,

कोई नहीं शोक भय से चीखे।।


इंग्लैण्ड राष्ट्र सम्पन्न देख,

निज देश की याद सतायी है।

है खोट देश में ही अपने,

स्वार्थ की बदली छायी है।।


जब तक कर्तव्य त्यागकर हम,

औरों के तलवे चाटेंगे।

सुख का ना होगा नाम कहीं,

दुख में ही जीवन काटेंगे।।


ऊंच नीच निर्धन अमीर का,

जब तक न भेद मिट पाएगा।

संकीर्ण मजहबी भावों के,

रहते न यहाँ सुख आएगा।।


तन से वह थे इंग्लैण्ड में,

मन था भारत मे बसा हुआ।

पितु आज्ञा का शिर पर था भार,

इस बन्धन में था बँधा हुआ।।


किसी तरह पढ़ आठ माह,

आई0सी 0एस0का एग्जाम दिया।

उन्नीस सौ बीस सितम्बर बाइस को,

आई0सी0एस0 में था टाप किया।।


चौथा स्थान मिला उनको,

चुन सिविल सेवा में लिए गए।

छाया आमोद सकल कुल में,

पर वो इससे न प्रसन्न हुए।।


मैं राष्ट्र भक्त हूँ शोषक की,

भक्ति कैसे कर पाऊँगा।

मुझसे ना होगी स्वामीभक्ति,

तज राष्ट्र भक्ति ना पाऊँगा।।


अपने मन के इन भावों को,

लिख पत्र भ्रात को बतलाया।

क्या करूँ मुझे दे उचित राय,

इस समय मेरा मन भरमाया।।


है हाथ जोड़ विनती मेरी,

मुझ पर बस एक कृपा करिए।

त्याग पत्र की दे आज्ञा,

मेरा संताप सकल हरिए।।


अपने हित की खातिर तो मैं,

ना माँग कभी कुछ सकता हूँ।

पर राष्ट्र हेतु सर्वस्व समर्पित,

करने से ना डरता हूँ।।


यद्यपि मेरे इस कार्य से, 

मेरा हराम जीना होगा।

फिर एक दिन ऐसा आएगा 

जब ब्रिटेन मुक्त भारत होगा।।


समझौता है बुरी चीज,

सम्मान नष्ट कर देती है।

सम्मान हो जिसका जग मे,

वश मृत्यु उसे सुख देती है।।


निज अन्तर्मन की सुन पुकार,

दायित्व का बोध हुआ उनको।

बाईस अप्रैल उन्नीस सौ बाईस को,

त्यागा गोरों की सेवा को।।


घर आया देख उन्हें उनके,

परिजन उन पर थे कुपित हुए।

उनकी चिन्ता कुछ किए बिना ,

जो करना उधर प्रवृत हुए।।


बम्बई के मणिभवन पहुँच, 

की प्रथम भेंट उन गाँधी से।

उनकी क्या नीति क्रिया कैसी,

आजादी आएगी कैसे।।


एक घण्टे तक चली बात,

मनका ना बोझ हुआ हलका।

गाँधी से आशा भंग हुई,

गाँधी ने पढ़ा भाव मनका।।


बोले गाँधी बंगाल पहुँच,

चितरंजन जी से भेट करो।

शंका निर्मूल सभी होगी,

फिर कहे जो वो तुम वही करो।।


बंगाल पहुँच कर जब सुभाष,

चितरंजन जी के घर आए।

दोनों इस भाँति मिले मानो,

हो ब्रम्ह जीव मिलने आए।।


पूछा चितरंजन ने उनसे,

क्या अपनी चिन्ता तुम्हें नहीं।

तुमने अच्छा पद त्याग दिया,

देखा ऐसा त्यागी न कहीं।।


बोले सुभाष भारत भू से,

जब तक न गुलामी जाएगी।

तब तक धन पद यश जीवन की,

चिन्ता ना मुझे सताएगी।।


मेरी चिन्ता वश एक यही,

कब मुक्त राष्ट्र अपना होगा।

दीन दुखी शोषित जन को,

जाने कब तक ही सुख होगा।।


यदि तुम से हो सब राष्ट्र भक्त,

तो वो दिन दूर नहीं होगा।

पर गाँधी जी को तजकर के,

हल कठिन प्रश्न ये ना होगा।।


सम्मान बहुत गाँधी जी का,

भारत की जनता करती है ।

उनके वश एक इशारे पर,

मरने से भी ना डरती है।।


गाँधी जी की यह इच्छा है,

हो एक सभी भारत के जन।

वश लाभ मिले इसका कितना,

देखो करके निज शांत मन।।


अत्याचारों से भारत की,

जनता व्याकुल अकुलाई है।

जल्दी में निर्णय लिया गया,

पर होता अति दुख दाई है।।


चितरंजन जी के गूढ़ कथन सुन,

मन को विश्राम मिला उनके।

मन ही मन निश्चय कर डाला,

पालन आदेश करूँ इनके।।


उनकी प्रतिभा अरु लगन देख,

चितरंजन जी संतुष्ट हुए।

नेशनल कालेज के प्रधानाचार्य,

पद पर सुभाष आसीन हुए।।


इस पद पर रहकर ही सुभाष,

स्वयं सेवक दल का गठन किया।

बंगाल कथा पत्रिका का भी,

सम्पादन निज हाथों में लिया।।


दिन रात एक कर लोगों में,

क्रान्ति की अलख जगाई थी।

व्याख्यानों को उनके सुनकर,

चेतना लौट फिर आई थी।।


जो सदियों से राजतन्त्र के,

 शोषित अरु पद्दलित बने।

निर्भय हो अधिकार माँगने,

को वह सम्मुख आन खड़े ।।


सत्रह नवम्वर सन इक्कीस को,

प्रिन्स आँफ वेल्स भारत आए।

ऐसा विरोध हो गया प्रवल,

गोरों भीषण अकुलाए ।।


हड़ताल हुई हर राज्य में,

भरपूर विरोध हुआ उसका।

होती है वह ही क्रान्ति सफल,

हर व्यक्ति बने भागी जिसका।।


चितरंजन जी बंगाल प्रान्त में,

काँग्रेस के प्रमुख बने।

व्यापक आन्दोलन हो कैसे,

इसके कायदे कानून बने।।


उत्तराधिकारी चुनने को जब,

चितरंजन जी से कहा गया।

तत्क्षण सुभाष को उसी जगह,

उत्तराधिकारी बना दिया।।


अपनी प्रतिभा का कर प्रयोग,

जनक्रान्ति सुभाष कर रहे थे।

नेतृत्व प्रबल उनका देखे,

गोरों के हृदय फट रहे थे।।


क्रान्ति वेग रोकने हेतु,

गोरों ने कुछ इस भाँति किया।

दस दिसम्बर सन इक्कीस को,

बन्दी सुभाष को बना लिया।।


पहले सुभाष फिर चितरंजन,

को पकड़ जेल में डाला था।

पर अधिक समय तक कोई भी,

बन्दी ना रहने बाला था।।


दोनो को दे छ:मास सजा,

फिर भेज अलीपुर जेल दिया।

इससे उपजे असन्तोष ने,

भीषण स्वरुप था धार लिया।।


गिरफ्तारियाँ हुई आग फिर,

भी न क्रान्ति की मन्द पड़ी ।

दोनों की रिहाई की खातिर,

शासन से जन की रार बढ़ी।।


दो फरवरी सन बाईस को,

सविनय आन्दोलन शुरु हुआ।

तारीख पाँच चौरी चौरा,

थाने को भीड़ ने जला दिया।।


बाईस गोरे सैनिक जिन्दा,

थाने में जलाकर मार दिए।

इस घटना से गाँधी जी ने,

निज पग पीछे को खींच लिए।।


गाँधी के हटने पर पीछे,

थी दल में फूट पड़ी भारी।

दो दल काँग्रेस के बने सभी ने,

की निज नीति नई जारी।।


आरोप लगा गाँधी जी ने, 

नैतिकता से खिलवाड़ किया।

बोले आत्मा जो कहे सदा,

हमने है वो ही कार्य किया।।


चौबीस अगस्त को सजा काटकर,

जब सुभाष बाहर आए।

प्रथम बार जनता के सम्मुख,

निज भावों को प्रकटाए।।


सद्कार्य करो हर कष्ट सहो,

पा शिक्षा मिलकर एक रहो।

दीन की सेवा करो न्याय,

हर हाल में केवल सत्य कहो।।


जाति धर्म अरु धनी दीन का,

भेद न जब मन में होगा।

कर विचार देखो मन मे,

पीड़ित न एक भी जन होगा।।


सन बाईस के अन्तिम दिन,

अधिवेशन हुआ काँग्रेस का।

मत भेद एक भी मिट न सके,

क्या होगा अब आजादी का।।


कुछ विचार हित चितरंजन जी,

जन दल के एकत्र किए।

जनवरी मास के प्रथम दिवस,

स्वराज पार्टी गठित किए।।


उसी वर्ष कलकत्ता में था,

नगर निगम चुनाव होना।

करना चुनाव का बहिष्कार,

काँग्रेसी दल ने था ठाना।।


चितरंजन जी ने आगे बढ़ ,

उपयोग किया इस अवसर का।

दल के प्रत्याशी लड़े किया,

उपयोग सभी निज क्षमता का।।


विजय मिली चितरंजन जी ने,

महापौर पद पाया था।

उपमहापौर सुहरावर्दी,

अधिशाषी सुभाष बनाया था।।


निज क्षमता का करके प्रयोग,

की विकसित कलकत्ता नगरी।

बढ़ती सुभाष की जनप्रियता,

पर ब्रिटिश राज को थी आखिरी।।


गोपीनाथ साहा ने जब,

गोरे डे को गोली मारी।

कर गिरफ्तार दे दी फाँसी,

जनता थी बेबस बेचारी।।


दिल में सुभाष के यह खटना,

बनकर के शोला भङक उठी।

भर्त्सना पूर्ण भाषण सुनकर,

थी अब गोरों की नीद उङी।।


राष्ट्र भक्ति करने बाले,

बिन कारण ही पकड़े जाते।

अपराध न हो कुछ भी चाहे,

पर जेलों में ठूँसे जाते।।


आतंकवाद फैलाने का, 

झूठा आरोप लगाकर के।

बन्दी सुभाष को बना किया,

बन्द अलीराजपुर जाकर के।।


हो जाये ना विद्रोह कहीं,

गोरों ने मन में विचार किया।

सन पच्चीस के पच्चीसवें दिन,

सेलुलर जेल में भेज दिया ।।


माण्डले जेल पीड़ादायी,

उसमें जो बन्दी हो जाए।

रोगग्रस्त हो जाये वह,

या मरकर ही वाहर आए।।


अति कठिन काम करने होते,

भोजन का उचित प्रबन्ध न था।

अंधड़ चलते दिन रात धूल के,

धूसरित सभी कुछ बचा न था।।


हर क्षण होता अपमान यातना,

 से चलती थी जंग सदा।

हो प्रेम भाव जिनमें सच्चा,

होता वह जग से मनुज जुदा।।


उन्हीं दिनों की बात खबर,

पायी सुभाष अति व्यथित हुए।

सोलह जून सन पच्चीस को,

चितरंजन उनसे दूर हुए।।


समाचार पीड़ादायक पर,

पीड़ा क्षण में भूल गए।

सोचा करना सब एकाकी,

प्रेरित जो करे वह चले गए।।


दूषित जलवायु शोक चिन्ता ने,

आकर के उनको घेरा।

क्षय रोग ग्रस्त वो हुए,

रोग ने डाल दिया तन पर डेरा।।


जर्जर तन हुआ रोग से जब,

जीवन की आस न शेष रही।

तब ब्रिटिश राज ने हो बेबस ,

उनकी मुक्ती की बात कही।।


सोलह मई सन सत्ताईस को,

बिना शर्त छोड़ा उनको।

ईश्वर भी उनका साथी है,

औरों की चिन्ता है जिनको।।


कुछ दिन सक्रियता दूर रखी,

फिर उठे रोग शय्या तजकर।

बंगाल प्रान्त ने कांग्रेस का, 

अध्यक्ष बनाया था चुनकर।।


चितरंजन जी की जगह उन्हें,

जनता ने निज प्रतिनिधि माना।

उनके संरक्षण में रहकर,

आजादी पाना था ठाना।।


फरवरी तीन सन अट्ठाईस को,

साइमन दल भारत आया था।

प्रतिरोध हुआ उसका भारी,

जनता ने सीना ताना था।।


गोरों ने निहत्थी जनता पर,

इस कदर लाठियाँ बरसायी ।

घायल लाला जी हुए कुछ दिनों,

बाद मृत्यु उनको आयी।।


सुख दुख जीवन में आते हैं ,

अवरोध खड़े हो जाते हैं।

उत्साह उमंग हो अटल लक्ष्य,

जिनका वो ना घबराते हैं ।।


साबरमती आश्रम में गाँधी जी से,

मिलने को सुभाष आये।

बोले बापू मतभेद मिटा,

क्यों हुआ एक अब ना जाये।।


हम सब को मिलकर के ऐसा,

अब तो ताण्डव करना होगा।

गोरों के छक्के जाय छूट,

तो इन्हें भागना ही होगा।।


बोले बापू कुछ करने की,

स्थिति में नहीं अभी हैं हम।

नुकसान अधिक इसमें होगा,

ना ब्रिटिश शक्ति को मानो कम।।


रुख नरम देख गाँधी जी का,

हो गए नष्ट अरमान सभी।

सोचा इनसे रह अलग कर्म,

कुछ करूँ सफलता मिले तभी।।


उन्हीं दिनों लाहौर में जाकर,

जतिनदास बम बना रहे।

बम के प्रबल धमाकों से,

गोरों के सब अरमान ढहे।।


चौदह जून सन उनतिस को,

वो गिरफ्तार कर लिए गये।

लाहौर षड्यन्त्र केस में ला,

लाहौर जेल में बन्द किये।।


अंग्रेज और भारतीय कैदियों में, 

जब अन्तर को देखा था।

अपमान सहन कर सके नहीं,

गोरों से निज हक माँगा था।।


जब नहीं सुनी फरियाद गयी,

तो दूषित भोजन त्याग दिया।

त्रेसठवे दिन अधिकार हेतु,

लड़कर जीवन बलिहार किया।।


लाहौर से ले कलकत्ता तक,

शव यात्रा में हुजूम उमड़ा ।

शासन से हुई घृणा सबको,

युवकों के उर में रोष बढ़ा ।।


अपने प्रिय शिष्य और साथी का,

शव लेने सुभाष आए।

मन ही मन हुआ शोक लेकिन,

कर याद कार्य थे हर्षाए।।


दो जनवरी तीस सन में,

लाहौर कांग्रेस सभा हुई।

नेहरु जी बने सभापति तब,

पार्टी सुभाष की गठित नई।।


काँग्रेस डेमोक्रेटिक पार्टी में,

थे असन्तुष्ट जन सभी जुड़े ।

जो कांग्रेस ना ले पाई,

वो निर्णय लेने हुए खड़े ।।


मजलूम किसान मध्यवर्गी,

सबको सुभाष से आशा थी।

जनप्रिय नेता वो बने तभी,

शासन को हुई निराशा थी।।


बढ़ती ख्याती से डरकर के,

बिन कारण पकड़ा गया उन्हें।

राजद्रोह आरोप लगा दी,

एक वर्ष की सजा उन्हें।।


कलकत्ता मेयर चुनाव हेतु,

रह जेल मे नामांकन था किया।

जन बहुमत लखकर प्रवल उन्हें ,

शासन ने फिर था रिहा किया।।


सन तीस सितम्बर चौबीस को,

पद मेयर की शपथ उन्होंने ली।

निष्ठा पूर्वक कर कार्य दशा ,

कलकत्ता नगरी की बदली।।


पाँच मार्च सन इकतीस को,

गाँधी इरविन में सन्धि हुई।

अवज्ञा आन्दोलन किया बन्द,

गाँधी से जनता रुठ गई।।


शासन ने जब गाँधी जी की, 

माँगो को ठुकराया था।

आन्दोलन पुनः करूँगा मैं,

गाँधी ने विचार बनाया था।।


पा भनक मुख्य नेताओं से,

शासन ने जेल भर डाली।

बन्दी सुभाष भी बने बची,

कोई जेल नहीं उनकी खाली।।


रोग तपेदिक से सुभाष,

बन्दी गृह में ही ग्रस्त हुए।

हुआ इलाज देश में पर वह,

नहीं किसी विधि स्वस्थ हुए।।


तब मान बात शासन की वह,

निज खर्चे पर यूरोप गए।

विट्ठल भाई के प्रथम बार,

उनको दर्शन थे यही हुए।।


कुछ दिन रहकर के स्वस्थ हुए,

फिर जुटे राष्ट्र की सेवा में।

 माँगे से मिलती भीख सिर्फ,

अधिकार मिले बलिदानों में ।।


जब तक प्राणों का हम सबको,

किञ्चित भी मोह सताएगा।

तब तलक मान मिल सके नहीं,

केवल दुत्कारा जाएगा।।


जर्मनी गए हिटलर से मिले,

पर नहीं कोई हल निकल सका।

विट्ठल भाई की बीमारी सुन,

उनसे न वहाँ पर गया रुका।।


जी जान से विट्ठल भाई की,

सेवा में खुद को लगा दिया।

पर होनी ना कोई टाल सके,

मृत्यु ने उनको हरा दिया।।


विट्ठल भाई ने सुभाष को,

सम्पत्ति वसीयत की सारी।

वल्लभभाई ने किया मुकदमा,

नहीं वसीयत स्वीकारी।।


वल्लभभाई से मुकदमे में,

सम्पति सुभाष सब हार गये।

गाँधी की हरिजन सेवा के,

पा सम्पति थे खुल भाग गये।।


फिर वियना में आए सुभाष,

मूलर दम्पति के अतिथि बने।

कई मास तक रहे वहाँ,

दोनों में आत्मीय भाव बने।।


इण्डियन स्ट्रगल पुस्तक का,

लेखन सुभाष आरम्भ किया।

लिखने में कष्ट हुआ अनुभव,

तो एक राइटर को बुला लिया।।


लेखन में निष्ठा लगन सहित,

एमिली शैंकल सहयोग किया।

लख ज्ञान लगन कर्तव्य प्रेम,

अपना था उनको मान लिया।।


फिर वैदिक विधि से वियना में,

दोनों ने ब्याह रचाया था।

कुछ मास साथ रहकर के फिर,

कन्या रुपी धन पाया था।।


नेता जी ने स्वयं नाम,

पुत्री का अनीता बोस रखा।

एक मास की वह हो पाई थी,

जब उसको अन्तिम बार लखा।।


पितु बीमारी सन चौतिस में,

सुनकर वह भारत लौट पड़े ।

सन्देश मृत्यु का मिला,

कराची में जब उनके कदम पड़े ।।


कलकत्ता आने पर शासन ने,

फिर से उनको कैद किया।

अड़तालीस दिन रख नजर बन्द,

यूरोप पुनः था भेज दिया।।


अप्रैल तीन पैसठ को,

रोमा रोला से सुभाष मिले।

सुन गूढ़ नीति उनकी सुभाष,

थे क्रान्ति मार्ग पर निकल चले।।


सिनफिन आन्दोलन के द्वारा,

आयरिश गणराज्य स्वतंत्र हुआ।

पाने को विस्तृत ज्ञान गमन,

छत्तिस में आयरलैण्ड किया।।


आयरिश प्रधान डी0व्लेरा संग,

मैडम मेकब्राइड ने आकर।

स्वागत सुभाष का भव्य किया,

पुष्पों की माला पहनाकर।।


गवर्नमेंट हाउस में उनको,

डी0व्लेरा ने बुलवाया।

तब हुई वार्ता दोनो में,

उनको सुभाष अपना पाया।।


आयरिश ब्राडकास्टिग से सुभाष,

अपने विचार थे फैलाये।

ब्रिटिश राज के क्रूर कृत्य,

आयरिश समाज को बतलाये।।


सोचा कब तक रह निर्वासित,

यूँ ही जीवन को काटेंगे।

अब भारत माँ की गोदी में,

रह सेवा को स्वीकारेंगे।।


अप्रैल आठ सन छत्तीस को,

बम्बई में कदम सुभाष रखा।

कर गिरफ्तार यरवदा जेल में,

बन्दी उनको बना रखा।।


कुछ समय बाद यरबदा जेल से,

उनके ही घर में लाकर।

नजरबन्द कर दिया उन्हें,

बाहर था पहरा बैठाकर।।


रिहा कराने को सुभाष तब,

नेहरु जी आगे आये।

निकले जुलूस जनक्रान्ति देख,

ब्रिटिश राज था थर्राये।।


छोड़ा शासन ने मगर शर्त थी,

राजनीति से दूर रहो।

ब्रिटिश राज के बारे,

अपने मुँह से कुछ नहीं कहो।।


हुए जेल से रिहा तुरत,

बीमारी ने फिर आ घेरा।

चलते फिरते तुम रहो,

जगह पर एक नहीं डालो डेरा।।


ऐसी दी राय चिकित्सक ने,

करने को भी आराम कहा।

हो ख्वाब अधूरे जिसके फिर,

उससे जा सकता नहीं रहा।।


इलाहाबाद लाहौर हिमाचल,

में व्यतीत कुछ दिवस किए।

कांग्रेस ने उन्हीं दिनों,

कुछ ऐसे निर्णय बड़े लिए।।


कांग्रेस ने इक्यावनवाँ,

अधिवेशन आहूत किया।

अध्यक्ष सुभाष बने सबने,

ऐसा निर्णय एक साथ लिया।।


इक्यावन द्वार सजे सुन्दर,

उमड़े जन उनके दर्शन को।

पद रज लेने को मार्ग में,

थे युवा बिछाये पलकों को।।


इक्यावन बैल जिसे खींचे,

उस रथ पर थे सुभाष आए।

इक्यावन द्वारों से गुजरे,

जन उनको लखकर हर्षाए।।


वह नहीं मात्र एक नेता थे,

वह भारत माँ की सन्तति थे।

सब भारतीय उनके अपने,

अपने सबके ही सपने थे।।


एक वर्ष के बाद पुनः,

त्रिपुरा मे होना था चुनाव।

अध्यक्ष सुभाष बने फिर से,

जनता का ऐसा था सुक्षाव।।


गाँधी जी नहीं चाहते थे,

अध्यक्ष सुभाष बने फिर से।

पट्टाभिरमैया इसीलिए,

प्रत्याशी बने कांग्रेस के।।


उन्तीस जनवरी उनतालीस,

निकला परिणाम चुनावों का।

दो सौ अधिक वोट पाकर,

तोङा अभिमान काँग्रेश का।।


काँग्रेस बढ़ती जनप्रियता,

सह सुभाष की ना पायी।

रचकर कुचक्र नेता जी के,

मार्ग में खोदी थी खायी।।


काँग्रेस के सभी सदस्यों,

ने इस्तीफे दे डाले।

केवल सुभाष अरु शरतचन्द्र,

दो ही जन थे उनके पाले।।


इस बीच स्वास्थ्य ने भी सुभाष को,

 बुरी तरह झकझोर दिया।

उसी समय आहूत काँग्रेस ,

 अधिवेशन को किया गया।।


अधिवेशन में उनका भाषण,

जब शरतचन्द्र ने स्वयं पढ़ा ।

तब वीमारी के नाटक का,

कुटिलो ने था आरोप मढ़ा ।।


ऐसी बातों को सुन कर के,

मन को था भारी क्लेश हुआ।

जब त्याग पत्र दे दिया तभी,

मन का था हल्का बोझ हुआ।।


सोचा अपनो से उलझ गए,

तो लक्ष्य दूर हो जाएगा।

पग-पग पर बाधा आएगी,

सपना न पूर्ण हो पाएगा।।


फारवर्ड व्लाक दल का सुभाष,

कुछ दिनों बाद फिर गठन किया।

पूरे भारत में घूम-घूमकर ,

डंका स्वराज का बजा दिया।।


तीन जुलाई चालीस को,

कुछ उग्र प्रदर्शन करना था।

कलकत्ता में हालवेल,

मूरति का भंजन होना था।।


खबर पाय शासन उनको,

एक दिवस पूर्व ही पकड़ लिया।

काँग्रेस चुप रही कृत्य का,

कोई नहीं विरोध किया।।


अनशन आमरण जेल में ही,

नेता जी ने प्रारम्भ किया।

अनशन से शासन हिला सितम्बर,

पाँच को उनको रिहा किया।।


किया जेल से रिहा किन्तु,

घर उनका जेल बना डाला।

घर के बाहर अन्दर हरदम,

शासन ने था घेरा डाला।।


उनकी हर गतिविधि पर शासन की,

क्रूर दृष्टि थी लगी हुई।

कब उनसे मिलता कौन बात क्या,

करता तहकीकात हुई।।


इसी वजह से नहीं कोई,

उनसे मिलने को आता था।

यदा कदा परिजन ही कोई,

अब उस घर में आता था।।


नजरबन्द रह नेता जी,

विस्तृत योजना बना डाली।

समझाकर शिशिर भतीजे को,

निकले हरने को बदहाली।।


देने में मेरा साथ तुम्हें,

शासन का कहर सहना होगा।

बोला चिन्ता कुछ नहीं कष्ट,

इससे बढ़कर के क्या होगा।।


दिन रात बिना अपराध किए,

जुल्मों को सहते लोग यहाँ।

उनके हित मे कुछ करने का,

होता सबका सौभाग्य कहाँ।।


शासन को चकमा दे सुभाष,

फिर घर से एक दिन निकल गये।

कलकत्ता से चल पेशावर,

पेशावर से काबुल को गये।।


काबुल जाकर के नेता जी,

इटली की मदद से रुस गये।

विविध वेशभूषा भाषा,

स्थान बदलते कई गये।।


जर्मन राजदूत से मिलकर,

रुस से फिर वर्लिन आए।

हिटलर से मिलकर के अपनी,

सभी योजना बतलाए।।


हिटलर करने को मदद हुए,

तैयार मगर एक बात कही।

वर्लिन में भारतीय सेना,

हमसे लड़ती यह नहीं सही।।


सन इकतालीस की नवम्बर में,

जर्मनी मदद की भारत की।

फ्री इण्डिया सेण्टर बना,

हुई शुरुआत रेडियो स्टेशन की।। 


नेता जी के वक्तव्यों का,

प्रारम्भ प्रसारण किया गया।

जर्मन लोगों ने मदद हेतु,

आगे आकर आश्वस्त किया।।


जर्मनी में रहकर ही सुभाष,

मुद्रित संदेश कराया था।

जर्मनी से लड़ती भारतीय,

सेना परउसे गिराया था।।


यह युद्ध हमारा नहीं आप,

तत्क्षण ही युद्ध समाप्त करो।

अपना जो समर है सम्भावी,

उसमें सहयोग प्रदान करो।।


संदेश प्राप्त कर उसी समय,

सेना ने युद्ध समाप्त किया।

आत्मसमर्पण युद्ध त्याग,

जर्मनी के आगे तुरत किया।।


उस स्थल पर आकर सुभाष ने,

फिर ऐसा ऐलान किया।

राष्ट्र मुक्ति के हेतु लड़ो ,

सबको ऐसा पैगाम दिया।।


दिल्ली है दूर न सुनो भ्रात,

अति शीघ्र कूच करना होगा।

रण चण्डी को दे मुण्ड माल,

अरि रक्त हमें पीना होगा।।


तीव्र गति से बढ़े चरण,

हुँकार व्योम में छा जाए।

हो लाश शत्रु की चरण तले,

उस पर त्रिवर्ण ध्वज लहराए।।


व्यवहार देखकर हिटलर का,

उसकी मंशा वो समझ गये।

छः मई तितालिस को सुभाष,

जर्मनी त्याग जापान गये।।


 राष्ट्राध्यक्ष टोजो ने उनका,

अतिशय सत्कार किया।

फिर नेता जी ने जापानी,

संसद में निज वक्तव्य दिया।।


सिंगापुर में आई 0एन0ए0,

खुश हुआ खबर जब यह पाई।

नेता जी जापान में है,

यह क्षण है सबको सुखदाई।।


टोकियो रेडियो से नेता जी,

संदेश प्रसारित करते थे।

सुनकर जिसको खुश भारतीय,

गोरों के कलेजे फटते थे।।


राशविहारी से मिलने को,

नेता जी सिंगापुर आए।

आजाद हिंद सेना के सैनिक,

स्वागत करके हरषाए।।


दो दिवस बाद फिर नेता जी,

आई0एन0ए0के प्रमुख बने।

राशविहारी संग मंच से,

अभिवादन के पात्र बने।।


इक्कीस अक्टूबर तितालिस को,

अस्थायी सरकार बनी।

जन -जन को आशा बँधी छटेगी,

दुख की काली रात घनी।।


बोले सुभाष दो खून हमें,

मैं तुमको दूँगा आजादी। 

व्रिटिश राज की कुछ दिन में,

देखो तुम सब ही बर्बादी।।


नेहरु गाँधी आजाद और,

सेना में सुभाष ब्रिगेड बने।

रानी झाँसी रेजिमेन्ट में,

महिलाओं के यूथ बने।।


जापान जर्मनी फिलीपीन्स,

कोरिया चीन अरु इटली।

आयरलैण्ड मान्चुको सभी से,

स्वतन्त्र राष्ट्र की पदवी ली।।


उस दिन था तेईस अक्टूबर, 

फिर आई नवम्बर छः।

अण्डमान अरु निकोवार,

भारत के अंग बने।।


अण्डमान अरु निकोवार,

स्वराज शहीद द्वीप कहलाए।

प्रारम्भ युद्ध का हुआ,

गगन मे विजय घोष गुंजाए।।


फरवरी चार सन चवालीस को,

संयुक्त सैन्य दल निकल पड़ा ।

अराकान डलेट अरु पलेख में,

सेना का हुआ जमाव बड़ा ।।


मोडक चौकी भारत की, 

अति निकट यहाँ से थी लेकिन।

खतरा भी है अधिक रहेंगे,

कैसे यहाँ रसद के बिन।।


जापान कहा हटने को पर,

आजाद हिंद सेना न डिगी।

बोले तुम चाहे हट जाओ,

अपनी दिल्ली पर दृष्टि लगी।।


उत्साह सहित दोनों सेनाएँ ,

आगे बढ़ती जाती थी।

एक -एक कर दुश्मन के सब,

गढ़ हथियाए जाती थी।।


मार्च अठारह को दोनों,

सेनाएँ भारत में पहुँची।

रज को मस्तक पर धार,

क्रिया विधि आगे की सोची।।


अप्रैल पाँच रँगून में ,

नेता जी ने बैंक बनाया।

नेशनल बैंक आजाद हिंद में,

फिर अपार धन आया ।।


हबीब साहब श्री मती वेताई,

ने अपना सर्वस्व लुटाया।

सेवके हिंद की दे पदवी,

नेता जी शीश झुकाया।।


इम्फाल कोहिमा राजमार्ग,

दुश्मन से सेना ने छीना।

इम्फाल की तरफ बढ़े किन्तु,

बिन रसद कठिन था जीना।।


फिर भी प्राणों के मोह बिना,

सेना स्वकर्म मे लगी हुई।

बेबस पीछे हटना ही पड़ा ,

असमय जो बारिश शुरु हुई।।


सैनिक दुश्मन से होने को,

दो चार यहाँ थे मचल रहे।

गद्दार एक अधिकारी ने,

गोरों से जाकर भेद कहे।।


परिणाम हुआ की ब्रिटिश राज,

की सेना नभ में फैल गई।

ऊपर से लगे बरसने बम,

जन धन की भारी हानि हुई।।


नेता जी रंगून में है ,

पा खबर तुरत सेना आई।

नेता जी सकुशल निकल गये,

छू सके नहीं वो परछाई।।


आठ जुलाई सिगापुर में,

शहीद स्मारक नींव पड़ी ।

जापान दिए हथियार डाल,

सुनकर सुभाष की नींद उड़ी ।।


सोलह अगस्त को बैकाक,

सत्रह को वह सैगोन गये।

अठारह अगस्त को ताइहोकू से,

जाने को तैयार हुये।।


भरी विमान उड़ान मगर फिर, 

वह औधे मुँह आन पड़ा ।

लग गई आग जल गया यान,

उपजा फिर संशय बहुत बड़ा ।।


मिली खबर तन आग की लपटो,

में झुलसा सेनानी का।

ताइहोकू सैन्य चिकित्सालय ला,

किया गया इलाज उनका।।


साँसे सुभाष की ठहर गयी,

यह सुनकर ना विश्वास हुआ।

थे शोक मग्न हर नर नारी,

जल अन्न किसी ने नहीं छुआ।।


बने कई आयोग मगर,

संशय उनसे थे अधिक बड़े।

होती थी जितनी जाँच प्रश्न,

सम्मुख आते थे और कड़े ।।


जीवन भर बनकर के रहस्य,

अरि का था मर्दन मान किया।

उस पूज्य पुरुष को कोटि नमन,

जो आदर्शों के लिए जिया।



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