भाग्य
भाग्य
भाग्य भरोसे मत रहिए
कुछ कर्म स्वयं भी तो करिए।
कब तक यूँ भाग्य भरोसे बैठे,
रोते - रोते दिन काटोगे।
देखो वह काल पल पल तुमसे,
कुछ अमूल्य वस्तु लेते जाता है।
तुम यूँ ही अगर भाग्य भरोसे बैठे,
तो यह जीवन भी वह लेते जाएगा।
अब तो तुम उठो अपनी निद्रा तोड़ो,
इस भाग्य का तुम साथ अब छोड़ो।
देखो फिर तुम क्या क्या कर सकते हो,
इक नया इतिहास तुम रच सकते हो।
कुछ काम नया शुरू तो करिए,
कोई नया लक्ष्य अपने आगे तो रखिए।
फिर देखो इस निराश जीवन का,
एक नया स्वाद तुम चख पाओगे।
भाग्य भरोसे बैठे रहने से,
तुम ये सब कुछ यूँ ही खो दोगे।
आने वाले फिर नए समय में,
क्या तुम अपनी उपलब्धि गिनवाओगे।
भाग्य नहीं कुछ होता है,
तुम एक बार ज़रा कर्मठ तो बनो।
ये दुनिया भी झुक जायेगी,
तुम एक बार ज़रा दम तो है भरो।
भाग्य नहीं कुछ होता है,
सब कर्मों का फल होता है।
जो आज तुम करते हो,
कल फिर वही लौट कर आता है।
जो कर्मठ बन जाते है,
उनकी भाग्य गुलामी करता है।
वह भाग्य भी उनके ही अधीन,
होकर रह जाता है।
जो भाग्य भरोसे होते है,
वो अपना सर्वस्व ही खोते है।
वो निर्बल ही हैं होते है,
जो भाग्य का बोझ है ढोते है।
वीरों की श्रृंखला में देखो,
सब कर्मठ ही है मिलते है।
वो सिर्फ अपने कर्मों को ही,
अपना सर्वस्व समझते है।
वो अपने उन कर्मों से ही,
इस दुनिया पर राज है करते,
नहीं भाग्य उनका साधन है,
वो केवल पौरुष ही जानते है।