बेटी
बेटी
बेटी हूं सब चुपचाप सह जाती हूं
चाहती हूं कदमों के नीचे अासमान रखना
और हर बार चुप रह जाती हूं..
मैंने ख्वाहिशों को किनारे रखकर
पिता की इज्जत का मान रखा है
सोचे न बेटी होती है बोझ
इसलिए दबा कर हर अरमान रखा है..
रोते हुए भी मुस्कुरा कर दिखाया
चाहती थी बताना पर कभी नहीं जताया
रोक लिया खुद को यह सोचकर
जो पसंद है वो पा नहीं सकती
मैं तो बेटी हूं उनके खिलाफ जा नहीं सकती..
किया वही जो बेटी का फर्ज बनता है
पर अफसोस जमाना
इसीलिए बेवफा समझता है..
मजबूरी को वो भी समझ न पाया
क्यों लगा कि मर्जी से साथ छोड़ा
उसे क्या पता खुद के हजार
टुकड़े करके मैंने उसका दिल है तोड़ा..
एे खुदा दुआ है उसकी भी कभी प्यारी सी बेटी हो
जो उसके आंखों का नूर हो
उसे भी पापा पर गुरूर हो
तब समझ आए उसे
बाप कितनी उम्मीद बेटी से लगाता है
बेटी का दिल उसकी ख्वाहिशों के लिए
अपने कितने अरमानों को जलाता है..
