महफूज़
महफूज़
बचपन की नोका-झोकी में,
बदमाशियो का खूब फितूर किया है,
पर गैरत लगते हाथ उन मासूम गालों पर,
महफूज न कही उसने महसूस किया है।
सहमने का भाव, समझ न थी तब,
बचपन था,
हर बात को नादान किया है,
गुप्त सा था सब,
क्योकि अपनो के घर मे भी
बेटियो का छुप के उसने बलत्कार किया है।
बेटियो को सहजने वालों,
महफूज न कही.
करके तमाशा खुले सड़क पर,
ए इंसान,
कपड़ो की नुमाइश का बस तूने आगाज किया है,
रूह जो उसकी कांप उठी थी,
आवाज को इस कान से बस उस कान किया है,
भुला कर सारी हैवानियत को आज,
फिर तूने बस औरत को बदनाम किया है,
अरे!सुरक्षा की दलील देने वालो,
महफूज न कही..............
शरीर पर लगे खरोंचो को छुपाने को कहा
और हर जख्म शर्मनाक किया है,
उसका दर्द महसूस न हुआ
घर की इज्जत की बात है भूल जाओ
और उसकी मासूमियत को बर्बाद किया है...
अरे बेटियो को पालने वालो
महफूज न कभी न.........
कटघरे मे दरिंदे को होना था खड़ा,
तो पीड़ित को खड़ा कर,
कब हुआ, किस तरह हुआ
उस मासूम से ऐसा घिनोना सवाल किया है,
आंखो से पट्टी फेंक ओ न्याय के पुतले
देख तूने ही उस जान को बर्बाद किया है
महफूज न कही......
दर्द की चीख सुनी न तुझे
इसलिए सबूतों का तूने ऐलान किया है
मासूम को उसकी हवस की खबर नहीं
हर एक अंजाम को सरेआम किया है
कानून को बेचने वालो
दबा कर यह बात उसका नहीं
तूने अपनी ही बहू बेटियों को हलाल किया है
हो चाहे अब न्याय का मदिंर
महफूज न कही............
