चोट
चोट
हाँ, गिरा हूँ मैं बहुत बार।
गिरूंगा और सौ बार ,
गिरने से मैं डरता नहीं।
डर के हार मैं मानता नहीं,
माना ठोकर खाई है बहुत दफा
लेकिन हर बार कुछ नया ही सीखा
- नया ही जाना ।
ज़ख्म अभी भी है ताज़़े।
ज़हन में अभी भी है वह यादें
धुंधली यादों के भवसागर से,
निकल गया मैं कई आगे
कई आगे जब मैं निकल गया
न जाने ज़ख्म मेरा कब ठीक हो गया
दर्द गया, दुख गया।
गया मेरे भीतर का घमंड
वह चोट नहीं था, लेकिन था मेरे -
भीतर का खोट प्रचंड ।
