बेटी मेरी महज़ पंद्रह की थी
बेटी मेरी महज़ पंद्रह की थी
बेटी मेरी महज़ पंद्रह की थी,
और नजर उस पर पंद्रह की थी,
मैं था बेखबर इस बात से,
वो भी छिपाती रही अपने बाप से,
रोज़ सवेरे मैं उसे स्कूल छोड़ने जाता,
पर उसके चेहरे की शिकन न पढ़ पाता,
डरी सी सेहमी सी रहती थी वो,
मैं समझता रहा बड़ी शांत सी थी वो,
अंदर ही अंदर मुझे ज़ोर से पुकारती रही,
मैं समझ न सका जब वो मुझे निहारती रही,
वो सोचती रही बतला दूँ सब अपने बाप को,
फिर डर जाती और समझा लेती अपने आप को,
धीरे धीरे सिलसिला कुछ यूं बढ़ने लगा,
अब तो वो उसे रास्ते में छेड़ने लगा,
पर कुछ न कहती मुझसे, सारी बात छिपाती रही,
न जाने कौन सा खौफ था, जो उसे डराती रही,
एक रोज़ उनका सर चकराया,
दिन दहाड़े मेरी बेटी को उठवाया,
एक एक करके सबने उसका बलात्कार किया,
एक एक करके सबने ज़िन्दगी का संहार किया,
पर इतने में उनका मन न भर पाया,
करके उसे लहुलहान रास्ते में फिकवाया,
एक पुलिस ने फोन करके इत्तिला करवाया,
ज़मीन सरक गई पैरों तले जब समाचार सुनाया,
कुछ पल के लिए मैं सुन्न हो गया,
जैसे मानो दिल से धड़कन खो गया,
संभाला होश और पहुंचा अस्पताल,
टूट गया जब देखा अपनी बेटी को लाल,
उसके पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार किया,
फिर पुलिस के कुछ सवालों का जवाब दिया,
उसकी खामोशी सी चीखें अब सोने नहीं देती,
बिटिया मेरी एक छोटी है आँख भिगोने नहीं देती,
अब हर पल इसकी चिंता सताती है,
जब भी वो स्कूल जाती है,
वैसे तो उमर उसकी अभी कच्ची है,
पर दरिंदो की हवस कहां देखती कौन बच्ची है,
उसे अकेले छोड़ने को अब डर लगता है,
घर भी मुझ को अब कबर लगता है
