बेकसी
बेकसी
मैं चलती रही
राह बढ़ती गई
कभी साथ कभी तनहा
मंज़िल नजर ना आई
बहारें आती रही
कभी तूफ़ान संग लाई
वह चट्टान रोक ना पाया
मैं बहती बहती चली गई
ऐसे मोड़ पर जा थमी
सिलवटे खुल ना पाई
सामने उंगलियाँ उठाता जमाना
पीछे मुड़के देख भी ना पाई
नम आंखों को संभाले हुई
खुद को थामे खड़ी रही
कमबख़्त, जिंदा एहसास जिम्मेदारी का
खुद ब खुद फिर चल पड़ी.......