दो बातें
दो बातें
चल कहीं बैठते हैं
दो बातें करते हैं
दो घूट चाय के साथ
आज को आज में करते हैं
कुछ तेरी सही
कुछ मेरी सही
कुछ तो हैं दरमियाँ
इसी डोर को थामते हैं
चल कहीं बैठते हैं...
वह बुलबुले सी महफ़िल
और लंबी अनकही ख़ामोशी
ज़ुबाँ के तार छेड़ने का मन
रिश्तों पर चादर बर्फ़ सी
आज उसे पिचलाते हैं
चल कहीं बैठते हैं,
दो बातें करते हैं.....