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Prateek Kansal

Children Drama

2.7  

Prateek Kansal

Children Drama

बचपन

बचपन

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काश मैं फिर बचपन जी सकता,

मुक्त गगन को फिर छू सकता,

ना कोई बंदिश, ना जिम्मेदारी,

स्वच्छ पवन होती थी सवारी

ना कोई काम की चिंता होती,

ना आलस्य पे निंदा होती,

पंख फैलाए खग की भाँति,

देखता मैं दुनिया की झाँकी ।


खुशियों के पर्याय बहुत थे,

उम्मीदों के ख्वाब बहुत थे,

लूडो, चकरी और सांप-सीड़ी,

थी इनमें सीमित दुनिया सारी,

पापा की वो डाँट-फटकार,

मम्मी का वो लाड़-प्यार,

भाई-बहनों की वह किलकार,

भर देते थे दिल के द्वार ।


अब दौड़-भागकर भी इस जग में,

सुख-चैन नहीं मिल पाता है,

माया के मृगतृष्ण जाल में,

रैन भी काम कराता है,

हरदम सब में होड़ लगी है,

सबसे आगे बढ़ने की,

भूल गए हैं सभी मनुष्य,

परहित जनहित करने की ।


छूट जा रहे दोस्त जिन्हें हम,

भाई-तुल्य समझते थे,

जिनके साथ कभी बचपन में,

हर बात को सांझा करते थे,

आज भी दोस्त हैं बहुत मगर,

अब समझ नहीं यह आता है,

कौन है इनमें सच्चा और,

कौन बस ऊपर से दिखलाता है ।


बचपन में हम चाहा करते,

जल्द से जल्द बड़े हो जाना,

डाँट-डपट और रोक-टोक से,

जल्दी से छुटकारा पाना,

अब जाकर है समझ में आया,

वो कितने अच्छे दिन थे,

केवल एक ही आस है दिल में,

फिर से हो जाएँ हम बच्चे ।।


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