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Dr. Vikas Kumar Sharma

Abstract

4.5  

Dr. Vikas Kumar Sharma

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बचपन से पचपन

बचपन से पचपन

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शर्मा जी का बेटा अक्की

रेहड़ी पर खा रहा था मक्की


दादी पर अक्की की नजर पड़ी

आज दादी लग रही थी थकी-थकी

धीरे-धीरे चलते हुए एकदम से रुकी


अक्की देख रहा था टकटकी लगाए

दादी खड़ी थी गर्दन झुकाए


अक्की के लिए दादी थी लकी

और दादी थी इरादे की पक्की


पैदल-पैदल रोज मंदिर जाती

जोश में उनके कभी कमी नहीं आती


अक्की बोला दादी तुम यहाँ?

दादी बोली हाँ बेटा, हाँ


तबियत तुम्हारी लग रही है ढ़ीली

पसीने से हो गई हो गीली


ऊँची आवाज में सुनाती थी मीठी लोरी

आवाज में दादी की लग रही थी कमजोरी


दादी बोली बेटा अक्की

अब आ गई है ऐसी घड़ी

हो गई हूँ पचास से थोड़ी बड़ी


बचपन की गुड़िया

अब हो गई है बुढ़िया


दाँतों की कमजोर कड़ियाँ

बालों की झड़ती लड़ियाँ


मौसम सर्द

खतरनाक जोड़ों का दर्द


फूल जाती है साँस

दवाइयों से रह गई है आस


ये सब हैं पचपन की मार

बहुत याद आता है 

बचपन का संसार


बचपन की शरारतें

बचपन के सारे खेल

छुक-छुक करती आती रेल

चोर पकड़ती थी

पोशम पा की जेल


पढ़ाई-लिखाई का ना था कोई भार

बचपन का समय था बहुत मजेदार


बेहतरीन बीती सारी जवानी

याद आ रही आज नानी


मेरी नानी के थे ठाठबाट

लगती थी तीस की

पर उम्र थी साठ


बेटा आज का खानपान ही है ऐसा

फैल रहा प्रदूषण कैसा-कैसा


ताकत की सारी चीजें रही हैं छूट

हर तरफ फैली है लूट-खसूट


पचपन ही मेरे जन्म का साल

बचपन मेरा था बेमिसाल


उम्र हो गई है मेरी पचपन

लेकिन दिल में रहता है बचपन।



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