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dr vandna Sharma

Classics

5.0  

dr vandna Sharma

Classics

बचपन गया है, बचपना नहीं

बचपन गया है, बचपना नहीं

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बड़े होने का बहुत शौक था बचपन में 

बड़े होकर, बचपन बहुत याद आता है 

कितनी उलझने हैं ज़िंदगी में 

कितना मन को मारना पड़ता है। 


बड़े होने की इतनी बड़ी कीमत 

आंसू छुपाने पड़ते हैं हँसकर 

दिल रोये, लबों को मुस्कराना पड़ता है। 


वो बचपन कितना प्यारा था 

ना कोई शर्म, ना झिझक, न संकोच 

खुलकर रोना-हँसना, बेझिझक चिल्लाना 

कभी रूठना, कभी मनाना। 


पल में कट्टी, पल में दोस्ती 

पहली बेंच पर बैठने के लिए लड़ना 

वो दोस्त का टिफिन खाना 

उसको चिड़ाना। 


वो पहला स्कूल, पहली स्कूल टीचर 

वो कैंटीन में मस्ती करना 

छुट्टी की घंटी के बजने का इंतज़ार करना 

बारिश में भीगते हुए स्कूल जाना। 


फिर स्कूल टीचर से डांट खाना 

क्या ज़रूरी था बारिश में आना 

परीक्षा खत्म होने की ख़ुशी 

जुलाई में वो नयी क्लास में आना। 


एक रविवार कितना था खास 

ऊँगली पर दिन गिनते करते इंतज़ार 

क्यों हम इतने बड़े हो गए 

बचपन गया है, बचपना नहीं। 


फिर से बच्चे बन जाते हैं 

कोई समझाए कितना ही 

हमको समझना नहीं 

क्यूंकि वो बचपन फिर से जीना है। 


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