बात ज़ुबाँ पर
बात ज़ुबाँ पर
बात ज़ुबाँ पर आके ठहर गयी
बातें अनकहीं सी लगने लगीं,
ज़िद है इस बार मेरी
शुरुआत तो करें।
आँखें दर्द बयां करने लगी है,
पर दिल ज़िद पर अड़ा है,
वो रूठा था जो किसी बात पे,
औऱ वो अड़ी थी कब किसी पे,
बात है उनकी अब सम्मान पे,
कैसी खता थी हम दोनों की,
लेकिन खफ़ा हम दोनों थे,
किसी को किसी से खोने का,
अब डर दोनों को लगने लगा,
दूजे की वफ़ाई पे प्रश्न चिन्ह लगा,
वो प्रेम कि गहराई जिसकी जाने
अनजाने अब समझने है लगीं,
वो अपना प्रेम अब उस ही से माने,
फिर भी कैसी ज़िद पे हम दोनों अड़े हैं,
एक दूजे के साथ होकर भी अलग
"हार्दिक" दोनों क्यूँ अलग अब खड़े हैं।