बाइस साल की वो लड़की
बाइस साल की वो लड़की
सपनों के पंख लेकर
ऊंचे गगन के पार जाने के
अरमान सजाती थी
वो बाइस साल की लड़की।
अल्हड़ सी, बातूनी सी
गुनगुनाती सी
जीवन के सुनहरे ख्आव
खुली आँखों से देखा करती थी
वो बाइस साल की लड़की।
मायके की देहरी लांघ कर
ससुराल की चौखट पर
हाथ में जगमग दिए
अरमानों के लेकर
मुस्कुराती हुई चली आई थी
वो बाइस साल की लड़की।
कंगना छनकाती, घूंघट संभालती
कभी लगाती, कभी मैके की याद में
छलकाती आँसू
कभी पिया के प्रेम को आतुर
नए रिश्तों में चाशनी घोलती
वो बाइस साल की लड़की।
और फिर-
हँसो मत जोर से
पल्ला सिर से हटा क्यों
बङो के आगे चुप रहो
खास दिनों की बंदिशों तले
सकपकाई सी रह गई
वो बाइस साल की लड़की।
ये क्या किया ?
ये क्यों नहीं किया ?
ऐसी अनगिनत आवाजो के
शोर से सहम कर छुपने लगी
वो बाइस साल की लड़की।
थोड़े से प्रेम-सम्मान की चाह लिए
जिम्मेदारियों और अपेक्षाओं के
ढोल की थाप बार-बार सुनकर
उम्र के कई पड़ावों को
अनछुआ छोड़ कर अचानक
पैंतीस साल की महिला बन गई
वो बाइस साल की लड़की।
फिर भी यदा कदा
अकेले में आईने के आगे
की बार सामने आ जाती है
वो बाइस साल की लड़की।
और जैसे ही खुल कर
सांस लेने को आतुर होती है
वैसे ही बाहर से आती
आवाजों से घबरा कर
फिर मन के भारी पर्दों के पीछे
छुप जाती है
वो बाइस साल की लड़की।