अतृप्त आकांक्षाएं
अतृप्त आकांक्षाएं
जीवन में ख़्वाब देखने में कोई आपत्ति नहीं हैं
पर ख़्वाब की एक मर्यादा निर्धारित करनी हैं,
देखें हुए ख़्वाब पूरे करने में मेहनत लगती हैं,
और मानव की तृष्णा कभी शांत होती नहीं हैं
निन्यानवे के फेर में फँस वो तृप्त होता नहीं हैं
मानव के पास जो हैं वो उससे संतुष्ट नहीं हैं,
अतृप्त आकांक्षाएं मन को कचोटती रहती हैं,
वो आकांक्षाएं सोच की हर हद पार करती हैं
आक्षेप, तंज़, घुटन, ईर्ष्या मन में बसर जाती हैं
ज़िन्दगी साम दाम दंड भेद नीति अपनाती हैं
एक जरूरत पूरी हुई, दूसरी खड़ी हो जाती हैं
मृग मरीचिका हैं तृष्णा मस्तिष्क में बसती हैं।