नदी की आत्मकथा
नदी की आत्मकथा
मैं एक नदी हूं,
झर झर बहती, कल कल करती
बहते रहती हूं, निरंतर,
बिना रुके, बिना थके,
परिस्थिति से निडर होकर
हर विपदा को पार करके
रुकावटों को रास्तों की
कंकड़, पत्थर, चट्टान को चीरती हुई
बंधनहिन,अकेली, सरहदों को तोड़कर
हार ना मानते हुए
कभी तेज बहाव, तो कभी मध्यम,
पहाड़ों से निकलकर, चंचलता से
इठलाती, बहकाती
कभी ना ठहरती
रास्ता ढूंढती अपने गंतव्य पर
पहुंच जाती हूं
सागर में समा जाती हूं
बस यही है पड़ाव मेरा
इसी क्षण के लिए वजूद
अपना बचाती हूं
मैं नदी हूं,
विभिन्न नाम है मेरे
प्रवाहिनी, तटिनी, क्षिप्रा या सरिता
पाप हरनी या मोक्षदायनी
कोई मां कहता कोई कहता देवी
मेरा अस्तित्व मेरे किनारे
मेरा मूल्य आपका जीवन
जीवन ऊर्जा से ओतप्रोत
स्वच्छ निर्मल मेरा जल
सम्पूर्ण जीवन को गर्भ में पालती
मेरी अनोखी दुनिया को
खुली आँखों निहारती
वर्षा का पानी मुझ में समाता
पर्यावरण का संतुलन बनाता
बिजली का उत्पादन मुझसे होता
खेत खलिहान मुझसे फलते फूलते
अन्नपूर्णा मैं भोजन देती
प्यासे की तृष्णा बुझाती
बूंद बूंद है जीवन मेरा
हर हाल में जीना सिखलाती
अडिग रहती हूं अपने फैसले पर
तीज त्योहार तुम खूब मनाओ
पर गंदगी ना मुझमें मिलाओ
हरियाली मुझसे है खिलती
पनघटो पर छोरियां जल है भरती
धरती को उपजाऊ बनाती
शुद्ध हवा को सीने पर दौड़ती
अर्पण तर्पण की मुझसे ही पूर्ति
इसलिए यह कहती हूं
हे मनुष्य अभागे
होश में आओ, धरती को मत नोचो
पर्यावरण का संतुलन बनाओ
पेड़ों को बचाओ, जल को रोको
सुनो अब तो पुकार मेरी
पानी को रोको, जल ही जीवन है
क्योंकि मै बची तो तुम्हारी नस्ल बचेगी
वरना विनाश अटल समझो...