अस्थि-मज़्ज़ा से देती सुदृढ़ आकार
अस्थि-मज़्ज़ा से देती सुदृढ़ आकार
कोमल कंचन काया से सिंचती है नवांकुर को परिहार,
अपनी अस्थि मज़्ज़ा से मेदिनि को देती सुदृढ़ आकार !
चिलचिलाती ज़िन्दगी की धूप में वो बनती है घनी छाया,
अपनी संतति को देख हर भारतीय नारी का मन हर्षाया !
जीवन प्रतिपल जो बदल रहा है वह धूप छाँव का खेला है,
एक स्त्री का हृदय तो समझ लो कि ममता प्रेम का मेला है !
त्याग समर्पण के साथ अब नारी दृढ़ता और साहस से सिक्त है,
बात सिर्फ उन ललनाओं की नहीं जो मातृत्व आभा से युक्त हैं !
बल्कि हर स्त्री अपने आप में एक असीम शक्ति समाए हुए है,
हर स्त्री की पुरज़ोर कोशिश आज तमाम वर्ज़नाओं से मुक्त है !