अश्वथ
अश्वथ
सच कहूँ,
तुम मीठे फल की
आशा कभी न करना
मुझसे।
पर जो तुम
कभी झुलस जाओ,
अकथ पीड़ा की तेज धूप में
बेझिझक कभी भी
चले आना,
इसकी छांव तब भी घनी थी,
अब भी है और रहेगी
हमेशा ही।
हृदय की घनी
दूर तक फैली शाखाओं की पत्तियां
समय के थपेड़े और उतार चढ़ाव
झेलती हुई भावनाएं
निरंतर सोखती रहीं है
अप्रिय स्मृतियाँ, अनुभव
और देती रहीं है सांत्वना
अपने आस पास निराश
अनगिनत व्यथित प्रेमियों को
प्रकृति वश।
हाँ,ये हृदय
अश्वत्थ ही पैदा हुआ है,
जो कई बार उखड़ा, जमा और
स्मृतियों में बहे अश्रुओं
से सिंचता रहा है,
वास्तव में यह
उपकृत है तुम सब से ही,
तो सोचना मत
चले आना ।