अपनों को ढूंढता हूँ
अपनों को ढूंढता हूँ
इमारतों के जंगल में घर ढूंढता हूँ,
गुमनाम रिश्तो में अपनों को ढूंढता हूँ,
वो गलियां आज अनजान सी हो गई,
जहाँ रहता जीवन वो कल ढूंढता हूँ,
खिंच गई जाने कब बिखरती वो लकीरें,
लकीरों में मै अपनी किस्मत ढूंढता हूँ,
बहुत पाने की तलाश में भटक गया था ,
बहुत कुछ पाकर भी जाने क्या ढूंढता हूँ,
निराशा के दलदल में फंसकर रह गया था,
आशा की एक छोटी सी किरण ढूंढता हूँ,
उजाला पाने के लिए अंधेरा कर दिया मैंने,
अंधकार में ही चांदनी की रोशनी ढूंढता हूँ,
जिंदगी लू के थपेड़ों- सी झुलसने लगी है,
आज पेड़ की ठंडी- ठंडी वो छांव ढूंढता हूँ,
दिल वज्र हो गया और मानव ढांचा रह गया,
अब उसमें दबे हुए उन एहसासों को ढूंढता हूँ!