अपने ज़मीर में झाँको
अपने ज़मीर में झाँको
मेरे गाँव के नुक्कड़ में चार लोगों का जमावड़ा था,
खींचा-तानी, नोक-झोंक जैसा कि अखाड़ा था।
चारपाई में बैठे जरायु लगता कोई सुरमा था,
बात-बात में मूँछें ऐठता उनका चाल निराला था।
बीच-बीच में हुक्का भरते पंचायत देखो निर्णायक था,
शर्म हया कुछ भी नहीं उन्हें वो स्वयं दण्ड के लायक था।
दूर खड़ी एक अबला नारी चीख-चीख कर गिड़गिड़ायी थी,
मर्जी से कर ली थी शादी अपनी व्यथा सुनायी थी।
देखो तो उन मर्दों को दंड पकड़ कर आया था,
तंज कसते मारो कहते दण्ड सर पर उठाया था।
बीच बचाओ न होता तो एक लाश और गिर जाती,
सफ़ेद पोश में रहते हो क्या कभी अपने ज़मीर को झाँका था ?
जब भी बेटा गलती करते अबलो को दोषी बनाया था,
जब बेटी से हो गयी गलती तब अक्ल ठिकाने आयी थी।।
