अपने पराये का भेद
अपने पराये का भेद
सुकून मिलता था कभी अपनों को देख कर,
मगर वो हम से नज़रें फेर लेते हैं,
सुकून मिलता है आज भी उन्हें देख कर,
मगर वो हमें ग़लत समझ लेते हैं।
आँसू गिरना चाहते हैं बूँद बन कर,
मगर हम उन्हे रोक लेते हैं,
लेकिन अपने तो इस कदर पराये हुए,
कि कभी अपने बन ही नहीं पाते हैं।
भूल जाते हैं हमें आग बन कर,
और अपने आँसुओं को सुखा जाते हैं,
जब कभी हमारी याद आए,
तो अपने ज़मीर को सुला देते हैं।
माना कि ज़िन्दगी फ़नाह हो कर,
इक दिन उसमें मिल जाती है,
मगर इक लम्हा, इक पल हम,
खुद को यह विपरीत एहसास देकर,
अपने पराये का भेद कर लेते हैं।