अनंत सुख
अनंत सुख
न ज़मीन थी,
ना आसमान था
एक शून्य में अटकी थी मैं
फिर भी न जाने कैसा
एक सुकून था !
तभी अचानक से
कुछ नज़र आया
वो काले-काले
राक्षसों का समूह...
जैसे डरा रहा हो मुझे,
मेरा काल बनकर।
मैं तो महफ़ूज थी
उस अनोखे केबिन के अंदर....
फिर ये डर कैसा ?
ये क्या ! एक अद्भुत-सी रोशनी ..
चकाचौंध हो गया सारा जहान जैसे।
मन मचल उठा
उस रोशनी को देखकर ...
पल-भर में सारा
माहौल ही बदल गया !
अब तो घुटन-सी होने लगी
उस केबिन के अंदर।
उस अद्भुत रोशनी को
खुले आसमान में
महसूस करना चाहती थी...
तभी अचानक मुझे मेरी
ज़मीं का एहसास होने लगा...
जो रोशनी एक शून्य में थी,
वो ज़मीन पर नज़र आने लगी।
झिलमिलाते सितारों भरी जिंदगी,
मेरे इंतजार में
अपनी बाँहें फैलाये खड़ी थी।
जल्द उठ खड़ी हुई
और समा गई उस रोशनी में
एक अनंत सुख को समेटे हुए !
एक मातृत्व को समेटे हुए !
