अनकही
अनकही
मैं टूटा हुआ काँच का एक टुकड़ा हूँ
चाहे जिधर फेंक दो।
मगर बड़े अदब ए लिहाज़ से
कहीं चुभ ना जाऊं किसी के पाँव तले।
मत बहाना आँसू इस दुनिया से मेरे चले जाने पर
ना तुम आना मेरे आखिरी वक्त पर।
कहीं चन्द लम्हों मे ही मेरी साँस ना थम जाए
तुम्हारे उस वक्त को याद करके।
क्या दे सकती हो मुझे मेरे बीते दिन
या ले चलो मुझे कहीं दूर नगर...?