जन्नत
जन्नत
खो जाता हूँ तेरी यादों में हर पल
फिर अचानक समेट लेता हूँ तेरी यादों का समंदर
तुझे हमेशा देना चाहता था एक बेहतर कल
शायद मैं ही नहीं पढ़ पाया का चल रहा है तेरे मैं के भीतर
चंद अल्फाज़ कह कर तू हो गयी मुझे से दूर
मैं फिर भी समझ न पाया की तू थी कितनी मजबूर
मुझसे हो गयी बहुत बड़ी भूल
तेरे बगैर जीना अब मुझे नहीं है मंजूर
तू आ जा कही से बन के एक हूर
और ले चल मुझे अपने साथ कहीं दूर
जहाँ तेरा मेरा प्यार हो मंजूर न की मजबूर
जहाँ लागू न होता हो इस दुनिया का कोई भी दस्तूर
जहाँ न किसी ने लोगों को अलग धर्मों में हो बांटा
जहाँ न किसी ने एक दूसरे को मजहब के नाम पे हो काटा
जहाँ बोली जाती हो सिर्फ प्रेम की भाषा
मैं बन जाऊँ तुम्हारा जिन और तुम बन जाओ मेरी आका
जहाँ मुझे हो गुरूर की अब हम नहीं होंगे
जिंदगी भर एक दूसरे से दूर
जहाँ कभी न हो सपने चूर-चूर
जहाँ प्यार ही प्यार हो भरपूर
और मैं जिंदगी भर तुम्हें अपने पलकों पे बिठा के रखूँ ए मेरे हुज़ूर...