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Shilpi Goel

Abstract Tragedy Classics

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Shilpi Goel

Abstract Tragedy Classics

अनकहे अल्फाज़

अनकहे अल्फाज़

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मन उदास है आज बहुत

उथल-पुथल सी मची है

शोर बहुत है भीतर मन में

बाहर एक खामोशी सी छाई है


क्यों, क्या, कैसे,कुछ समझ नहीं आता

जीवन का यह रूप बिल्कुल नहीं भाता

रोने का दिल करता है बहुत

लेकिन आँसू आँख से बाहर नहीं आता


जाने कैसा दस्तूर है दुनिया का

अपना दुख दुख लगता है

दूसरे का दुख नजर नहीं आता

कहने को तो जन्मों का नाता है

पर निभा कोई-कोई ही पाता है


क्यों इतना परायापन महसूस होता है

कहीं दिल नहीं लगता

कहने को हजार हैं नाते रिश्तेदार

मन की बात कहें जिससे

ऐसा कोई नजर नहीं आता


रात गहरा जाती है रोज

पूरा दिन उधेड़-बुन में बीत जाता है

नींद कोसों दूर है पलकों से

दिमाग गहरी निद्रा में खोने को चाहता है


जाने कितने अनकहे अल्फाज है होठों पर

जो बाहर आने को व्याकुल हैैं 

परन्तु मन की गहराई मेेें

उनका समाहित हो जाना ही

जग को खुशी दे पाता है।


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