अंजान नहीं मैं
अंजान नहीं मैं
जरा भी
अंजान नहीं
मैं उस पदचाप से
मेरे देहरी पर
जो ठिठकी है।
वहीं एक
सिसकी भी है
रुंधे गले में
रुकी हुई
अपनी जगह पर
दर्द छिपाए हुए।
शाम से
कोई साया सा
लिपटा है मेरे मन से भी
कुतरता हुआ
थोड़ा थोड़ा
मेरा अडिग विश्वास।
अब भी
झरोखे पर ही
अटकी हुई है नजर
रात से मेरी
सुबह रोशनी के
अंदर टाप कर
आता देखने को।
कानों में
गूंजती है एक अरदास
एक आस के लिए
ठीक उसी पल
जब खींच रहे होते है
हम कांटे
समय की घड़ियों के।
हाँ,
जरा भी
अनजान नहीं मैं
इन सब से
मगर हूँ
अंजान फिर भी।