अलंकार
अलंकार
जैसे नारी जेवरों से', करती श्रृंगार वैसे..
कविता अलंकार से, निखार पाती है..।
झूम-झूम घूम-घूम, शब्द-शब्द अर्थ-अर्थ..
रूपसी यों बार-बार, चमत्कार लाती है ।
उपमा में उपमेय, उपमान हों समान..
ऐसी भावसरिता में, कविता नहाती है ।
जहां उपमेय अपमान हों अभेद दोनों..
वहां मीत रूपक को देख मुस्कुराती है..।।
शब्द आये बार-बार, अर्थ हों अनेक जहां..
उसको यमक अलंकार जान लीजिये ।
एक शब्द एक बार, अर्थ हों अनेक किन्तु..
वहां श्लेष वाला उदगार मान लीजिए ।
एक वर्ण कई बार, कर रहा चमत्कार..
वहां अनुप्रास वाला, रस पान कीजिये ।
जनु जानौ मनु मानौ, वाचक प्रयोग दिखे
वहाँ उतप्रेक्षा निखार ठान लीजिये ।।
