अजनबी
अजनबी
शहर अन्जान था,अजनबी रास्ते,
बिखरे टुकड़े समेटे अरमानों के,
सेज काँटों की,मन को रहे साधते,
कदम दर कदम, प्यार के वास्ते।
उलझने भरके दामन में प्रतिपल सहे,
वेदना ,पलकों से अश्रु धारा बहे ,
बह गये ख़्वाब के शामियाने कई,
टूटते तारे अंजान से हँस पड़े।
दोस्त अन्जान बन गुम होते गये,
बरफ सी ज़िंदगी यूँ फिसलती गई,
बाद मुद्दत के पहचान खुद से हुई,
अपनी परछाई भी जब दगा दे गई।