ऐ ज़िंदगी
ऐ ज़िंदगी


रेत की तरह फिसल रही हो क्यों
बुलबुले की तरह बिखर रही हो क्यों
शमा की तरह जल रही हो क्यों
ऐ ज़िंदगी,
थकती नहीं,रूकतीं नहीं हो क्यों
ग़ैरों की तरह पेश आती हो क्यों
मुझसे ही तुम अजनबी हो क्यों
ऐ ज़िंदगी,
आओ दो घड़ी मिल लें
प्यार के कुछ पल जी लें
कुछ मीठा सा गुनगुना लें
थोड़ा सा अलसा ले
चंद घड़ी सुस्ता ले
ऐ ज़िंदगी,आओ थोड़ा जी लें !