अदृश्य बन्धन
अदृश्य बन्धन
जाने क्यों पसन्द था बन्धन मुझे,
विवाह का, अपनत्व का,
प्रेम का और ममत्व का।
समझ नहीं पाती थी मैं,
मेरे और तुम्हारे डोर विहीन बन्धन को,
हृदय के सम्पूर्णता युक्त समर्पण को।
न आधी ख्वाहिशें न आधी खुशियाँ,
चाहते थे भरी पूरी हो हमारी दुनिया।
चाहती थी शायद सांसे तुझमे समाँगन,
चाहती थी मैं, तुझ समेत तेरा घर आंगन।
हाँ सात फेरों के बन्धन बहुत लुभाते थे,
और कितनी दफा गांठ बांध संग घूम आते थे।
सोचते थे खत्म कर लें अधूरेपन को परस्पर साथ से,
बांध कर अंगुलियों को एक दूजे के हाथ से।
काश बन्ध जाते सात जन्म के बंधन में हम,
तो ये एहसास कभी न होते अंधेरों में गुम।
खत्म कर दें दूरियां और बंध जाएं एक नाम से,
तब शायद न जीते यूं दूर दूर गुमनाम से।
फिर भी मुक्त नहीं हो तुम मुझसे मैं तुमसे,
अटूट होते हैं कुछ 'अदृश्य बन्धन' बेनाम से।

